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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ८९/९२*
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मगन मस्त लय लीन मन, हरि चरनै धन हेत ।
प्रांण पुरिष धापै४ नहीं, जगजीवन सुख लेत ॥८९॥
{४. धापै-संतुष्ट(तृप्त) हो}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि मन मगन और मस्त हो जब प्रभु स्मरण में लीन होता है तो वह प्रभु चरणों को ही श्रेष्ठ धन मानता है । और उससे उसे इतना आनंद मिलता है पर फिर भी तृषा बनी रहती है ।
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जगजीवन नीझर झरै, पच्छिम बरसै मेह ।
रोम रोम सुख ऊपजै, नख सिख भीजै देह ॥९०॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार पश्चिम दिशा से आये बादल छाए नवरत बरसते हैं ऐसे ही राम नाम स्मरण से यह देह नख शिख भीग कर रोम रोम से सुखी होती है ।
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जगजीवन लिखि राखिये, रोम रोम हरि नांम ।
अंग सौं अंग लगाइ करि, तौ रस पावै रांम ॥९१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि रोम रोम हरि को समर्पित हो । इस प्रकार के समर्पण से ही राम स्मरण का आंनद रस प्राप्त होता है ।
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सरस रसांइण५ सीख ले, काया कंचन होइ ।
हरि भजि आनन्द ऊपजै, जगजीवन घट धोइ६ ॥९२॥
(५. रसांइण=पारे से बनी सिद्ध औसध) {६. धोइ=धो(स्वच्छ) कर}
संत जगजीवन जी कहते हैंकि हे जीव सरल रसायन है प्रभु नाम ओर तू जिससे देह कंचन हो जाती है उसके मूल्य बढते हैं । हरि भजन से आनंद बढता है अतः निर्मल ह्रदय करें ।
(क्रमशः)
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