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*तूं मेरा, हूं तेरा, गुरु सिष किया मंत ।*
*दोन्यों भूले जात हैं, दादू बिसर्या कंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निराश निरूप१ करै निशि वासर,
दास की आश के धामन आवै ।
सेवक सेव रचैं२ तहां बैठि जु,
विरक्त बात अनेक चलावै ॥
गाँव द्वै चरि में चित्त अटक्यो हो,
चील्ह की नाईं तहाँ मँडलावै३ ।
हो रज्जब और की और कहै कछु,
आपन दु:ख दशा४ में दिखावे ॥३॥
रात्रि दिन निराशता का निरूपण१ कहता है और अपने सेवकों की आशा लेकर उनके घरों में जाता है ।
जहां सेवक सेवा करते२ हैं, वहां बैठकर विरक्त अनेक बात चलाता है ।
जिनमें अपने सेवक होते हैं उन दो चार गांवों मन अटका रहता है और जैसे चील्ह पक्षी मृतक पशु पर चक्कर३ लगाता है, वैसे ही उन गांवों में धूमता रहता है ।
सेवकों के पास बैठकर कुछ की कुछ बातें कहता है और अपना जो कुछ दु:ख होता है, वह उन बातों के समय४ में ही सबको बता देता है ।
(क्रमशः)
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