रविवार, 5 जनवरी 2025

*खलजन वंदना ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू निन्दक बुरा न कहिये,*
*पर उपकारी अस कहाँ लहिये ।*
*ज्यों ज्यों निन्दैं लोग विचारा,*
*त्यों त्यों छीजै रोग हमारा ॥*
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*खलजन वंदना ॥*
निंदक जिनि मरै रे, पीछै निंद्या करैगौ कौंण ।
ठर्यौ भर्यौ गलिबौ करै, ज्यूँ पाणी मैं लौंण ॥टेक॥
धोबी धोवै कापड़ा रे, निंदक धोवै मैल ।
भार हमारा ले चलै, ज्यूँ बणिजारा कौ बैल ॥
हम गुण गावैं गोबिंद का रे, निंदक औगुण गाइ ।
हमकौं पार उतारि करि, आप रसातलि जाइ ॥
हम कौं जाइ हरि सुमिरताँ रे, उस औगुण बारंबार ।
निंदक चलणी ह्वै रह्यौ, तुस का राखणहार ॥
निंदक कौं साबासि है रे, भरी हथाई मांहिं ।
परमेसर कौं भूलि गया, परि निंद्या भूला नांहिं ॥
निंदक कूँ आठौं पहर, निंद्या ही सौं काम ।
हरिजन के हिरदै बसै, बषनां केवल राम ॥३१॥
यहाँ परम्परा जीवित रहती है । बषनांजी कहते हैं, हम चाहते हैं, हमारी निन्दा करने वाला निंदक कभी भी न मरे । (व्यक्ति विशेष तो मरता ही है किन्तु उसकी परम्परा जीवित रहती है । यहाँ परम्परागत निंदक से ही तात्पर्य है) क्योंकि उसके मर जाने पर हमारी निंदा करके हमें सावधान कौन करेगा ? जिस प्रकार सुरक्षित पात्रों में भरा हुआ नमक भी पानी का संसर्ग होते ही गल जाता है उसी प्रकार निंदकों द्वारा सावधान न किये गये साधक भी बहुत जल्दी ही साधनमार्ग से पतित हो जाते हैं ।
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धोबी कपड़ों को धोते हैं । निंदक पापों का नाश करते हैं । वस्तुतः निंदक साधक के पापों को ठीक उसी प्रकार साधक के शिर से हटाकर अपने ऊपर ले जाते हैं जिस प्रकार बणजारे के बैल सामानों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं ।
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हम तो(साधक तो) गोविन्द के गुणों का गायन करते हैं जबकि निंदक हमारे अवगुणों का कथन करते हैं । वस्तुतः ऐसा करके निंदक हमारा तो उद्धार कर देता हैं किन्तु स्वयं रसातल = नरकगामी होता है ।
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हमारा सारा समय तो हरि का स्मरण करते हुए व्यतीत होता है जबकि निंदक का समय अवगुणों का बारंबार चिंतन करने में व्यतीत होता है । वस्तुतः निंदकों का आचरण उस चलनी के सदृश अवगुणग्राही है जो आटे को तो अपने में से निकाल देती है और तुसों को अपने भीतर में रख लेती है ।
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निंदक को भरी चौपाल में हमारी ओर से धन्यवाद है । वह परमेश्वर को तो भूल जाता है किन्तु निंदा करने को नहीं भूलता है ।
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निंदकों को आठों प्रहर(चौबीसों घंटों) निंदा करने का ही काम रहता है जबकि भक्तों के हृदय में केवल मात्र रामजी ही बसते हैं ॥३१॥

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