बुधवार, 29 जनवरी 2025

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*घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार ।*
*दादू भीजै आत्मा, को साधु पीवनहार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ओंकारनाथ ठाकुर इटली में मुसोलिनी के मेहमान थे–भारत के एक बड़े संगीतज्ञ। मुसोलिनी ने ऐसे ही मजाक में–भोजन पर निमंत्रित किया था ठाकुर को–मजाक में, भोजन करते वक्त मुसोलिनी ने कहा कि मैं सुनता हूं कि कृष्ण बांसुरी बजाते थे, तो जंगली जानवर आ जाते; गउएं नाचने लगतीं; मोर पंख फैला देते। यह कुछ मुझे समझ में नहीं आता कि संगीत से यह कैसे हो सकता है !
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ओंकारनाथ ठाकुर ने कहा कि कृष्ण जैसी मेरी सामर्थ्य नहीं। संगीत के संबंध में उतनी मेरी समझ नहीं। सच तो यह है कि संगीत के संबंध में कृष्ण जैसी समझ पृथ्वी पर फिर दूसरे आदमी की नहीं रही है। लेकिन थोड़ा-बहुत क ख ग, जो मैं जानता हूं, वह मैं आपको करके दिखा दूं कि समझाऊं ! मुसोलिनी ने कहा, समझाने में तो कोई सार नहीं है। तुम कुछ करके ही दिखा दो।
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कुछ न था हाथ में। खाना ले रहे थे, तो कांटा-चम्मच हाथ में थे। सामने चीनी के बर्तन, प्यालियां थीं। ओंकारनाथ ठाकुर ने वे प्यालियां और बर्तन चम्मच-कांटे से बजाना शुरू कर दिया। पांच मिनट, सात मिनट और मुसोलिनी की आंख झप गई और जैसे वह नशे में आ गया। 
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और उसका सिर टेबल से टकराने लगा। जोर से बजने लगे बर्तन और मुसोलिनी का सिर और जोर से टकराने लगा। और जोर से बजने लगे बर्तन ! और फिर मुसोलिनी चिल्लाया कि रोको, क्योंकि मैं सिर को नहीं रोक पा रहा हूं ! रोका, तो सिर लहूलुहान हो गया था।
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मुसोलिनी ने अपनी आत्मकथा में लिखवाया है कि मैंने जो वक्तव्य दिया था, उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं। जरूर कृष्ण की बांसुरी से जंगली जानवर आ गए होंगे। जब कि एक सभ्य आदमी का सिर सारी कोशिश करके भी नहीं रुक सकता है। और सिर्फ कांटे-चम्मच बर्तन पर बजाए जा रहे हैं, कोई बड़ा वाद्य नहीं !
चित्त की सूक्ष्मतम तरंगें ध्वनि की तरंगें हैं। ध्वनि से हम जीते हैं।
ओशो

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