शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

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*दादू कहै- दिन दिन नवतम भक्ति दे,*
*दिन दिन नवतम नांव ।*
*दिन दिन नवतम नेह दे, मैं बलिहारी जांव ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अहोभाव*
दरिया कहते हैं: और जिस दिन मैं एकरंग हुआ, उसी दिन मेरे भीतर हरि ही हरि भर गया। जब तक मैं बटा था, हरि का पता न था। जब मैं अनबटा हुआ, अखंड हुआ, एक हुआ—तत्क्षण वह अखंड मुझमें उतर आया। इकरंग हुआ भरा हरि चोला ! तो पूरे देह में, तन—प्राण में हरि ही हरि भर गया। हरि कहै, कहा दिलाऊं। और फिर मुझसे कहने लगे: क्या चाहिए बोल ? क्या दिला दूं ?
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अब यह भी कोई बात हुई। अब तो पाने को कुछ रहा नहीं। यही तो मजा है: जब पाने को कुछ नहीं होता, तब परमात्मा कहता है: बोलो क्या चाहिए ? भिखमंगों को परमात्मा कुछ नहीं देता, सम्राटों को सब देता है। उससे दोस्ती करनी हो तो भिखमंगापन छोड़ना पड़ता है। इसलिए तो इस देश ने संन्यासी के लिए स्वामी नाम चुना।
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स्वामी का अर्थ होता है: मालिक, सम्राट। मांगकर नहीं कोई उसके द्वार तक पहुंचता। मांगने में तो वासना है। जहां तक मांगना है वहां तक प्रार्थना नहीं है। जहां तक मांगना है वहां तक संसार। जहां सब मांगना छूट गया, जहां कुछ मांगने को नहीं—वहां अपूर्व घटना घटती है। परमात्मा कहता है: बोलो, क्या चाहिए ?
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कबीर ने कहा है कि मैं हरि को खोजता फिरता था और मिलते नहीं थे। और जब से मिले हैं, हालत बदल गई है। अब मेरे पीछे—पीछे घूमते हैं,कहत कबीर—कबीर ! जहां जा रहे कबीर, क्या चाहिए कबीर, क्या चाहिए कबीर ? अब मैं लौटकर नहीं देखता क्योंकि मुझे कुछ चाहिए नहीं।
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अब ये और एक झंझट का प्रश्न खड़ा करते हैं—क्या चाहिए ? न मांगो तो शोभा नहीं देता। न मांगूं तो ऐसा लगता है कि कहीं अशिष्टाचार न हो। सो मैं भागता हूं और वे मेरे पीछे पड़े हैं—कहत कबीर—कबीर ! कहां जा रहे, रुको ! कुछ ले लो !
इकरंग हुआ भरा हरि बोला
हरि कहै, कह दिलाऊं
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मैं नाहीं मेहनत का लोभी ! वे कहते हैं: मुझे कोई लोभ नहीं है। मुझे अब कुछ चाहिए नहीं है। बकसी मौज भक्ति निज पाऊं। अब अगर नहीं ही मानते हो और कुछ मांगना ही है, मांगना ही पड़ेगा, जिद पर हो पड़े हो तो इतना ही करो कि मेरी भक्ति बढ़े, और बढ़े, कि मेरी मौज और बढ़े। इतनी बढ़े, इतनी बढ़े कि निज को पा लूं। इस संसार में सब स्वप्न है—सिर्फ एक तुम को छोड़कर। इस संसार में सब दृश्य झूठे हैं—सिर्फ एक द्रष्टा को छोड़कर~ओशो

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