🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*देखा देखी सब चले, पार न पहुँच्या जाइ ।*
*दादू आसन पहल के, फिर फिर बैठे आइ ॥*
.
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
==============
*परिच्छेद ३, श्रीरामकृष्ण मनोमोहन के घर पर*
*(१)केशव सेन, राम, सुरेन्द्र आदि के संग में*
श्री मनोमोहन का घर, २३ नं. सिमुलिया स्ट्रीट, सुरेन्द्र के मकान के पास है । आज है शनिवार, ३ दिसम्बर १८८१ ई. ।
श्रीरामकृष्ण दिन के लगभग चार बजे मनोमोहन के घर पधारे हैं । मकान छोटासा है, दुमँजला; छोटासा आँगन भी है । श्रीरामकृष्ण नीचे मँजले के बैठकघर में बैठे हैं । यह कमरा गली से लगा हुआ ही है ।
.
भवानीपुर के ईशान मुखर्जी के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं ।
ईशान - आपने संसार क्यों छोड़ा ? शास्त्रों में तो संसार-आश्रम को श्रेष्ठ कहा गया है ।
श्रीरामकृष्ण - क्या भला है और क्या बुरा, यह मैं नहीं जानता । वे जो कुछ कराते हैं, वही करता हूँ; जो कहलाते हैं, वही कहता हूँ ।
.
ईशान - सभी लोग यदि गृहस्थी को छोड़ दें, तो ईश्वर के विरुद्ध काम करना होता है ।
श्रीरामकृष्ण - सभी लोग क्यों छोड़ेंगे ? और क्या उनकी यही इच्छा है कि सभी लोग पशुओं की तरह कामिनी-कांचन में मुँह डुबोकर रहें ? क्या और कुछ भी उनकी इच्छा नहीं है ? क्या तुम सब कुछ जानते हो कि क्या उनकी इच्छा है और क्या नहीं ?
.
"तुम कहते तो हो कि उनकी इच्छा है गृहस्थी करना । जब स्त्री-पुत्र मरते हैं, उस समय भगवान की इच्छा क्यों नहीं देख पाते ? जब खाने को नहीं पाते, उस समय - दारिद्र्य में - भगवान की इच्छा क्यों नहीं देख पाते ?
.
"माया जानने नहीं देती कि उनकी क्या इच्छा है । उनकी माया में अनित्य नित्य-जैसा लगता है, और फिर नित्य अनित्य-सा जान पड़ता है । संसार अनित्य है - अभी है, अभी नहीं, परन्तु उनकी माया से ऐसा लगता है कि यही ठीक है । उनकी माया से ‘मैं करता हूँ’ ऐसा बोध होता है, और ये सब स्त्री-पुत्र, भाई बहन, माँ-बाप, घर-बार मेरे ही हैं ऐसा ज्ञात होता है ।
.
"माया में विद्या और अविद्या दोनों हैं । अविद्या माया भुला देती है, और विद्या-माया - ज्ञान, भक्ति, साधुसंग - ईश्वर की ओर ले जाती है ।
"उनकी कृपा से जो माया से परे चले गये हैं, उनके लिए सभी एक-से हैं, - विद्या, अविद्या सभी एक-जैसी हैं ।
.
“गृहस्थ-आश्रम भोग का आश्रम है । और फिर कामिनी-कांचन के भोग में रखा ही क्या है ? मिठाई गले के नीचे उतर जाते ही याद नहीं रहती कि खट्टी थी या मीठी ।
“परन्तु सब लोग क्यों त्याग करेंगे ? समय हुए बिना क्या त्याग होता है ? भोग का अन्त हो जाने पर तब त्याग का समय होता है । जबरदस्ती क्या कोई त्याग कर सकता है ?
.
"एक प्रकार का वैराग्य है, जिसे कहते हैं मर्कट-वैराग्य । हीन-बुद्धिवालों को वह वैराग्य होता है । जैसे विधवा का लड़का, - माँ सूत कातकर गुजर करती है - लड़के की मामूली नौकरी थी, वह भी अब नहीं रही । तब वैराग्य हुआ - गेरुआ वस्त्र पहना, काशी, चला गया । फिर कुछ दिनों के बाद पत्र लिख रहा है - 'मुझे एक नौकरी मिली है । दस रुपये माहवारी वेतन है ।' उसी में से सोने की अँगूठी और धोती-कमीज खरीदने की चेष्टा कर रहा है ! भोग की इच्छा जायगी कहाँ ?"
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें