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*दादू यह परिख सराफी ऊपली,*
*भीतर की यहु नाहिं ।*
*अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
रोग के जोग सौ लोग रिझाये हो,
हीज१ सौं फेरि इन्द्री जित कीन्हो ।
घने२ घन३ घाम४ सहे बिन धाम,
जगत्त५ सुनाय कहैं तप खीनों६ ॥
अभाग्य की चूर७ गये सुख दूर,
कहै कछु जानि देही दुख दीन्हों ।
हो रज्जब दु:ख दशा८ में बनाय,
कहीं को प्रसंग कहीं करि लीन्हों ॥५॥
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रोग के योग से लोगों को प्रसन्न किया है । हिजड़ा१ होने से अपने को इन्द्रियजीत बना लिया है ।
बिना घर के बहुत२ दिन बादल३ वर्षा तथा सुर्य की आतप४ को सहन किया है और जगत५ के प्राणियों को सुनाकर कहता है तपस्या से शरीर क्षीण६ हो गया है ।
जीवन अभाग्य मय७ होने से सुख दूर चले गये हैं और कहता है कुछ जान बूझ कर ही देह को दु:ख दिया है ।
दु:ख को संतों की अवस्था८ में बना कर अर्थात दु:ख के कारण संतो के समान रह कर कहीं का प्रंसग कहीं कर लिया है अर्थात रोग की बात योग में ले आया है ।
(क्रमशः)
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