शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

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*दादू जल में गगन, गगन में जल है,*
*पुनि वै गगन निरालं ।*
*ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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हमने सुन रखा है कि राम की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। और हमने जो उसको अर्थ दिए हैं, वे नासमझी से भरे हैं। राम की बिना मर्जी के पत्ता भी नहीं हिलता, इसका केवल इतना ही अर्थ है कि इस संसार में दो मर्जियां काम नहीं कर रही हैं। पत्ते की मर्जी और इस अस्तित्व की मर्जी, दो नहीं हैं। यह पूरा अस्तित्व इकट्ठा है। और जब पत्ता हिलता है, तो पूरे अस्तित्व के हिलने के कारण ही हिलता है।
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अकेला पत्ता हिल नहीं सकता है। हवाएं न हों, फिर पत्ता न हिल सकेगा। सूरज न हो, तो हवाएं न हिल सकेंगी। सब संयुक्त है। और एक छोटा—सा पत्ता भी हिलता है, तो उसका अर्थ यह हुआ कि सारा अस्तित्व उसके हिलने का आयोजन कर रहा है। उस क्षण में सारे अस्तित्व ने उसे हिलने की सुविधा दी है। उस सुविधा में रत्तीभर भी कमी हो और पत्ता नहीं हिल पाएगा।
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राम की बिना मर्जी के पत्ता नहीं हिलता है, इसका केवल इतना ही अर्थ है। ऐसा कुछ अर्थ नहीं कि कोई राम जैसा व्यक्ति ऊपर बैठा है और एक—एक पत्ते को आज्ञा दे रहा है कि तुम अब हिलो, तुम अब मत हिलो। वैसी धारणा मूढ़तापूर्ण है। लेकिन अस्तित्व एक है। दूर, अरबों प्रकाश वर्ष दूर जो तारे हैं, उनका भी हाथ आपके बगीचे में हिलने वाले पत्ते में है। उनके बिना ये पत्ते नहीं हिल सकते।
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समुद्र में लहर उठती है, चांद का हाथ उसमें है। चांद के बिना वह लहर नहीं उठ सकती। चांद में रोशनी है, क्योंकि सूरज का हाथ उसमें है। चांद के पास अपनी कोई रोशनी नहीं है। सूरज से उधार प्रतिबिंब है, प्रतिफलन है। चांद से सागर हिलता है। और जब सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। क्योंकि सारा जीवन सागर से पैदा हुआ है।
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आपके भीतर पचहत्तर प्रतिशत सागर का पानी है। आप पचहत्तर प्रतिशत सागर हैं। और आपके भीतर जो जल है, उसका स्वाद ठीक सागर के जैसा स्वाद है। उतनी ही नमक की मात्रा है, उतना ही खारा है, उतने ही रासायनिक द्रव्य हैं उसमें। मछली ही सागर में नहीं जीती, आप भी सागर में जीते हैं। फर्क इतना है कि मछली के चारों तरफ सागर है।
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आपके भीतर सागर है। आपके भीतर नमक कम हो जाए, आपकी मृत्यु हो जाएगी। ज्यादा हो जाए, आप अड़चन में पड़ जाएंगे। ठीक सागर की जितनी मात्रा है, उतनी ही आपके भीतर होनी चाहिए। वह जो बच्चा पहली दफा मां के गर्भ में पैदा होता है, तो मां के गर्भ में ठीक सागर की स्थिति हो जाती है। ठीक सागर जैसे पानी में ही बच्चे का पहला जन्म होता है। बच्चा पहले मछली की तरह बड़ा होता है।
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जब सागर हिलता है, तो आपके भीतर भी कुछ हिलता है। अगर सागर के पास बैठकर आपको सुख मालूम होता है, तो आपने कभी सोचा नहीं होगा, क्यों ? वह जो सागर का कंपन है, जीवन है, वह आपके छोटे—से सागर को भी कंपाता है, जीवंत करता है। अगर रात चांद को देखकर आपको अच्छा लगता है, सुखद मालूम होता है, एक शांति मिलती है, तो वे चांद की किरणें हैं, जो आपके भीतर के सागर को कंपित कर रही हैं, जीवंत कर रही हैं।
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पूर्णिमा की रात दुनियाभर में सबसे ज्यादा लोग पागल होते हैं; अमावस की रात सबसे कम। पागलपन में भी एक ज्वार भाटा है। पूर्णिमा की रात दुनिया में सबसे ज्यादा अपराध होते हैं; अमावस की रात सबसे कम। आप शायद उलटा सोचते होंगे कि अमावस की अंधेरी रात सबसे ज्यादा अपराध होने चाहिए। अपराध नहीं होते हैं। क्योंकि अमावस की रात लोग उत्तेजित नहीं होते हैं। पूर्णिमा की रात उत्तेजित हो जाते हैं।
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पागलों के लिए पुराना शब्द है, चांदमारा। अंग्रेजी में शब्द है, लुनाटिक । लूनाटिक चांद से बना है। पागलपन में चांद का हाथ है। और अगर पागलपन में चांद का हाथ है, तो बुद्धिमत्ता में भी चांद का हाथ होगा। और अगर बुद्ध को पूर्णिमा की रात बुद्धत्व प्राप्त हुआ, तो चांद के हाथ को इनकार नहीं किया जा सकता। सब जुड़ा है, सब संयुक्त है। हम अलग अलग नहीं हैं।
ओशो ~ गीता दर्शन

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