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*मंदिर माहिं सुरति समाई,*
*कोऊ है सो देहु दिखाई ॥*
*मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई,*
*दिवा समान कहाँ ज्योति छिपाई ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अमी झरत, बिसगत कंवल ! अमृत की वर्षा होती है और कमल खिल रहे हैं !
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दरिया किस लोग की बात कर रहे हैं ? यहां न तो अमृत झरता है और न कमल खिलते हैं। यहां तो जीवन जहर ही जहर है। कमल तो दूर, कांटे भी नहीं खिलते–या कि कांटे ही खिलते हैं। क्या दरिया किसी और लोक की बात कर रहे है ? नहीं, किसी और लोक की नहीं। बात तो यहीं की है, लेकिन किसी और आयाम की है।
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दस दिशाएं तो तुमने सुनी हैं; एक और भी दिशा है–ग्यारहवीं दिशा। दस दिशाएं बाहर हैं, ग्यारहवीं दिशा भीतर है। एक आकाश तो तुमने देखा है। एक और आकाश है–अनदेखा। जो देखा वह बाहर है। जो अभी देखने को है, भीतर है। उस ग्यारहवीं दिशा में, उस अंतर आकाश में अमृत झर रहा है, अभी झर रहा है; कमल खिल रहे हैं, अभी खिल रहे हैं ! लेकिन तुम हो कि उस तरफ पीठ किए बैठे हो।
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तुम्हारी आंखें दूर अटकी हैं और तुम पास के प्रति अंधे हो गए हो। बाहर जो है वह तो आकर्षित कर रहा है; और जिसके तम मालिक हो, जो तुम हो, जो सदा से तुम्हारा है और सदा तुम्हारा रहेगा, उसके प्रति बिलकुल उपेक्षा कर ली है।
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शायद इसीलिए कि जो मिला है, जो अपना ही है, उसे भूल जाने की वृत्ति होती है। जो हमारे पास नहीं है, जिसका अभाव है, उसे पानी की आकांक्षा जगती है। जो है, जिसका भाव है, उसे धीरे-धीरे हम विस्मृत कर देते हैं। उसकी याद ही नहीं आती। जैसे दांत टूट जाए न तुम्हारा कोई, तो जीभ वहीं-वहीं जाती है। कल तक दांत था और जीभ कभी वहां न गई थी।
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मन के भी रास्ते बड़े बेबूझ हैं। जो नहीं है उस में मन की बड़ी उत्सुकता है। अब दांत टूट गया, जीभ वहीं-वहीं जाती है। दांत था तो कभी न गई थी। जो है मन में उसकी उत्सुकता ही नहीं। क्यों ? क्योंकि मन जी ही सकता है, अगर उस में उत्सुकता रहे जो नहीं है। तो दौड़ होगी, तो पाने की चेष्टा होगी, वासना होगी, इच्छा होगी, कामना होगी।
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जो नहीं है उसके सहारे ही मन जीता है। जो है उसको तो देखते ही मन की मृत्यु हो जाती है । दरिया आकाश में बसे किसी दूर स्वर्ग की बात नहीं कर रहे हैं; तुम्हारे भीतर पास से भी जो पास है, जिसे पास कहना भी उचित नहीं…क्योंकि पास कहने में भी तो थोड़ी दूरी मालूम पड़ती है; तो तुम्हारी श्वासों की श्वास है; जो तुम्हारे हृदय की धड़कन है; जो तुम्हारा जीवन है; जो तुम्हारा केंद्र है–वहां अभी इसी क्षण अमृत बरस रहा है और कमल खिल रहे हैं !
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और कमल ऐसे कि जो कभी मुरझाते नहीं–चैतन्य के कमल ! योगियों ने जिसे सहस्रार कहा है–हजार पंखुड़ियों वाले कमल ! जिनका सुगंध का नाम स्वर्ग है। जिन पर नजर पड़ गई तो मोक्ष मिल गया। आंखों में जिनका रूप समा गया तो निर्वाण हो गया।
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इस बात को सब से पहले स्मरण रख लेता है कि संत दूर की बात नहीं करते। संत तो जो निकट से भी निकट है उसकी बात करते हैं। संत उसकी बात नहीं करते हैं जो पाना है; संत उसकी बात करते हैं जो पाया ही हुआ है। संत स्वभाव की बात करते हैं।
ओशो; अमी झरत, बिगसत कंवल
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