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*इत है नीर नहावन जोग,*
*अनत हि भ्रम भूला रे लोग ॥*
*तिहिं तट न्हाये निर्मल होइ,*
*वस्तु अगोचर लखै रे सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: भगवान ! मीरा मेरी प्रेरणा-स्रोत रही है और कृष्ण मेरे इष्टदेव। शांत क्षणों में मैंने भी मीरा जैसे भक्ति-भाव की कल्पना तथा चाह की है और उसी के अनुरूप कुछ प्रयास भी किया। मगर प्राणों में उतनी पुलक नहीं उठी कि मैं नाच सकूं। फिर मैं आपके संपर्क में आया; आपका शिष्य हुआ। मैं तरंगित हुआ; मैं रोया; मैं हंसा। मगर कृष्ण से अब कुछ लगाव नहीं रहा। अब तो उस छवि के पास आते और आंखें मिलाते भी संकोच लगता है, जिसे मैंने वर्षों पूजा, जिसकी अर्चना की। यह क्या है भगवान ?
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कृष्ण चैतन्य ! कल्पना और सत्य में बड़ा भेद है। मीरा के लिए कृष्ण कल्पना नहीं हैं, कृष्ण बाहर भी नहीं हैं। मीरा के लिए कृष्ण उसके अंतर्तम में विराजमान हैं। वह जिस कृष्ण की बात कर रही है, कृष्ण की मूर्ति में तुम उस कृष्ण को नहीं पाओगे। उस कृष्ण का कोई रूप नहीं है, कोई आकार नहीं है। तुमने कल्पना की, वहीं चूक हो गई, वहीं भेद पड़ गया।
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मीरा के लिए कृष्ण एक आंतरिक सत्य हैं और तुम्हारे लिए केवल कल्पना की बात। कल्पना से कैसे तुम तरंगित होते, कैसे नाच उठता, कैसे पुलक जगती ? यूं समझो कि जैसे भोजन की कोई कल्पना करे, उससे कैसे पेट भरे ? प्यास लगी हो और पानी की कोई कल्पना करे, उससे कैसे तृप्ति हो ? पानी चाहिए। लेकिन यह तुम्हारी ही भ्रांति नहीं थी, यह करोड़ों-करोड़ों लोगों की भ्रांति है। कल्पना सस्ती होती है, सत्य मंहगा--सत्य बहुत मंहगा--प्राणों से दाम चुकाने पड़ते हैं। कल्पना के लिए तो कुछ करना ही नहीं होता, जब चाहो तब कर लो, मन की मौज है।
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मीरा ने सब गंवाया। कल्पना के लिए कोई कुछ भी नहीं गंवा सकता। लेकिन मीरा को पढ़ोगे, उसके शब्द तुम्हें प्रभावित कर सकते हैं। उन शब्दों में रस है। उन शब्दों में अनुगूंज है मीरा की वीणा की, मीरा की पायल की झंकार, लेकिन उन शब्दों से तुम सत्य तक न जा सकोगे। उन शब्दों को तुम प्रेरणा-स्रोत बना लोगे, तो सपनों में खो जाओगे।
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ऐसे ही सपने में तुम खो गए थे। मीरा ने तुम्हें प्रभावित किया। और स्वभावतः, मीरा ने प्रभावित किया तो कृष्ण तुम्हारे इष्टदेव हो गए। अब यह दूर कोयल की आवाज सुनते हो ! ऐसी आवाज तुम भी कर सकते हो, कुहू-कुहू करने में कोई कठिनाई तो नहीं। मगर वह होगी नकल। तुम्हारे प्राणों में कुछ भी न होगा, बस कंठ में ही होगी बात, ऊपर-ऊपर होगी। जीवन नहीं होगा। सत्य नहीं होगा। यथार्थ नहीं होगा।
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तुम दोहरा दोगे। और यह भी हो सकता है कि तुम कोयल से भी बाजी मार लो, क्योंकि नकलची नकल का अभ्यास कर सकता है, गहन अभ्यास कर सकता है। लेकिन अंतिम परिणामों में तो तुम हारोगे, बुरी तरह हारोगे, क्योंकि तुम्हारे हाथ में कुछ भी न होगा। कृष्ण की मूर्ति पर तुमने अपनी सारी कल्पनाओं का प्रक्षेपण कर दिया। कृष्ण की मूर्ति तो केवल एक सहारा बन गई, एक खूंटी बन गई, जिस पर तुम कल्पनाओं और भावनाओं को टांगते चले गए।
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मेरे पास तुम आए तो कृष्ण भूल गए। इसलिए भूल गए कि जो तुम चाहते थे सदा से घटना, वह घटने लगा। अब क्यों कोई कल्पना करे! जब वस्तुतः जलधार मिल गई, तो क्यों कोई कल्पना और सपना देखे जल का ! भूखे आदमी ही रात भोजन के सपने देखते हैं; जिनके पेट भरे हैं, वे नहीं। भिखमंगे ही सपने देखते हैं सम्राट होने के, सम्राट नहीं।
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यहां तो वस्तुतः पुलक पैदा होने लगी। तुम्हारे भीतर की कोयल जाग उठी। अब तुम्हें यहां कोई काल्पनिक कृष्ण के सहारे नहीं जीना है। यहां वस्तुतः जिसे तुम खोजते थे उसकी मौजूदगी है, उस ऊर्जा में तुम जी रहे हो, वह ऊर्जा तुम पर बरस रही है। मैं तुम्हें कल्पना नहीं सिखाता, मैं तुम्हें ध्यान सिखाता हूं। और ध्यान सीखने का अर्थ ही होता है: कल्पनाओं से मुक्त हो जाना; मन से ही मुक्त हो जाना।
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फिर कैसी कल्पना, कैसी स्मृति, कैसा विचार ! इसलिए सब गया--तुम्हारी कल्पना गई, तुम्हारी भावना गई, तुम्हारी पूजा गई, तुम्हारी अर्चना गई। और स्वभावतः अब उस खूंटी को देख कर तुम्हें शर्म आती होगी कि इस खूंटी के सहारे तुमने कितना अपने को धोखा दिया! इसलिए आज कृष्ण की छवि को देखते भी तुम्हें संकोच होता है। आंखें मिलाते भी तुम्हें संकोच होता है।
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उस संकोच में सिर्फ एक बात की घोषणा है कि तुम्हें अपनी ही नासमझी याद आती है। उस संकोच का कृष्ण से कोई संबंध नहीं है। वर्षों तक तुमने जो नासमझी की, कैसे कर सके इतनी नासमझी--यही याद आता है। यह याद आकर पीड़ा होती है, शर्म से सिर झुक जाता है। लेकिन कृष्ण पर कल्पना करने की जरूरत न रही; वास्तविक से तुम्हारा संबंध होना शुरू हो गया है।
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इसलिए तुम कह रहे हो आज कि "मैं तरंगित हुआ; मैं रोया; मैं हंसा।' यही तो तुम चाहते थे। जो तुम चाहते थे, वह हो गया है। अब क्यों तुम व्यर्थ के सहारे खोजोगे ! कृष्ण तुम्हें मिल गए। तुम्हें मैंने नाम ही "कृष्ण चैतन्य' इसीलिए दिया था। यही देख कर दिया था कि कृष्ण से तुम्हारा गहरा लगाव है। लेकिन झूठे कृष्ण को तो छोड़ना पड़ेगा। वह तुम्हारी कल्पना थी। और तुम जब कल्पना छोड़ दोगे, तो सत्य का साक्षात हो सकता है। सच्चे कृष्ण में तो क्राइस्ट भी समाए हुए हैं, बुद्ध भी, महावीर भी, जीसस भी--जिन्होंने भी जाना है सत्य को, वे सभी समाए हुए हैं।
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कृष्ण शब्द बड़ा प्यारा है। कृष्ण का अर्थ होता है: जो आकृष्ट कर ले, जो खींच ले। जादू, कृष्ण का अर्थ होता है। उस जादू में तुम आ गए। किसी ने तुम्हें खींच लिया। उस गुरुत्वाकर्षण में तुम हो अब। अब तस्वीरों का क्या करोगे ? जब मालिक मिल जाए तो तस्वीरों का क्या करना है ? सब तस्वीरें फीकी पड़ जाती हैं। सब तस्वीरें झूठी हो जाती हैं।
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एक महिला ने प्रसिद्ध चित्रकार पिकासो से कहा, कल तुम्हारी एक तस्वीर, तुम्हारी एक फोटो एक घर में टंगी देखी। बड़ी प्यारी थी। किसी बड़े महत्वपूर्ण छविकार ने, फोटोग्राफर ने उतारी होगी। मुझे तो इतनी प्यारी लगी कि मैं उसे बिना चूमे न रह सकी। पिकासो ने कहा, फिर क्या हुआ? तस्वीर ने तुम्हें चुंबन का उत्तर दिया या नहीं ?
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उस महिला ने बहुत चौंक कर पिकासो को देखा। उसने कहा, आप होश में हैं ? तस्वीर कहीं चुंबन का उत्तर दे सकती है?
पिकासो ने कहा, तो फिर वह मैं नहीं था। मुझे चूमो, और तब तुम भेद पाओगी। वह सिर्फ कागज ही था, भ्रांति थी। अगर तस्वीर ने उत्तर न दिया, तेरी जैसी प्यारी स्त्री के चुंबन का कोई उत्तर न मिला, तस्वीर कुछ बोली भी न, धन्यवाद भी न दिया, तुझे गले से भी न लगाया, वह झूठी थी। वह मैं नहीं था, इतना मैं तुझसे कहता हूं।
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पिकासो ठीक कह रहा है। कृष्ण चैतन्य, तुम कृष्ण की तस्वीर से बंधे थे इतने दिन तक। यहां आकर तुमने कृष्ण के यथार्थ को पहचाना है, जाना है। अब क्यों तस्वीर तुम्हें बांधेगी ? लेकिन प्रश्न उठना स्वाभाविक है। ...ओशो
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