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*दादू संगी सोई कीजिये, जे कलि अजरावर होइ ।*
*ना वह मरै, न बीछूटै, ना दुख व्यापै कोइ ॥२॥*
*साभार ~ @Ramavtar Sharma*
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🪺🧘♂️_॥ श्रीहरि: ॥_ 🧘♂️🪺
दिनांक 22.2.2025. शनिवार
परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज का प्रवचन
दिनांक— 23.5.1994, प्रातः 5.18 बजे। स्थान— गीताभवन, ऋषिकेश
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⚜️ एक साधन तो ऊपर से भरा जाता है और एक साधन करने की भीतर से रुचि पैदा होती है; भीतर के साधन से मनुष्य की पारमार्थिक उन्नति बहुत जल्दी होती है। जीव मात्र की किसी- न- किसी का सहारा, आश्रय लेने की स्वाभाविक ही प्रवृत्ति रहती है; जीवात्मा प्रकृति से संबंध जोड़कर नाशवान् प्राणी- पदार्थों का आश्रय लेता है, जो कि टिकने वाला नहीं है। जीवात्मा यदि भगवान् का आश्रय ले ले, तो फिर किसी दूसरे का आश्रय लेना ही नहीं पड़े। आश्रय नित्य का लेना चाहिए, जो कभी छूटे नहीं।
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काठ की ओट से काठ बचे नहीं,
आग लगे तब दोनों को जारे।
स्याल की ओट से स्याल बचे नहीं,
सिंह पड़े जब दोनों को फाड़े।।
मूसा की ओट से मूसा बचे नहीं,
बिल्ली पड़े जब दोनों को मारे।
आन की ओट से जीव बचे नहीं,
रज्जब वेद- पुराण पुकारे॥
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जब तक मनुष्य भगवान् के अलावा अन्य का सहारा लेता है, तब तक इसके वे सहारे टिकते नहीं हैं। जो दुःख अभी आया नहीं है, भविष्य में आने वाला है, उस वृद्धावस्था और मृत्यु रूपी दुःख से छूटने का उपाय मनुष्यों को करना चाहिए।मनुष्य यदि अपने स्वभाव के अनुरूप साधन करे तो उसकी पारमार्थिक उन्नति बहुत जल्दी हो सकती है। जिनकी प्रवृत्ति किसी का आश्रय लेने की है, उनके लिए भक्ति मार्ग, शरणागति बढ़िया उपाय है और जिनका स्वभाव स्वतंत्र रहने का है, उनके लिए ज्ञान मार्ग बढ़िया है।
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⚜️ शरीर की मुख्यता से जो साधन किया जाता है, वह साधन बड़ा ऊंचा होगा, ऐसी बात नहीं है; क्योंकि न तो शरीर निरन्तर रहने वाला है, ना ही शरीर की क्रिया निरन्तर रहने वाली है। जिस साधन में स्वयं की मुख्यता रहती है, वह साधन श्रेष्ठ होता है और शीघ्र परमात्मप्राप्ति कराने वाला होता है।
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⚜️ ज्ञान मार्ग में निर्विकारता मुख्य है और भक्ति मार्ग में एक भगवान् के आश्रय की मुख्यता है। इसमें एक मार्मिक बात है कि ज्ञानयोगी अपने को स्वतंत्र मानता है, लेकिन उसके ऊपर अपनी पूरी जिम्मेदारी रहती है, जबकि भक्तियोग में भक्त भगवान् के आश्रित रहता है, उसकी भगवान् की पराधीनता परम आनन्द देने वाली, निर्भयता देने वाली होती है; पराधीनता द्वितीय (अर्थात् पराये) की दुःखदायी होती है, अपनों की नहीं।
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⚜️ भगवान् ने अपनी शरणागति को बहुत श्रेष्ठ और गोपनीय बताया है।
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥
अनुभवी महापुरुष जो धन, मान, बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहते हैं, उनके हृदय में स्वाभाविक ही जीवों के प्रति दया रहती है और उनकी वाणी से स्वाभाविक ही जीवों का कल्याण होता है; वे चाहे गीता के अनुसार लिखें, चाहे अपने अनुभव के अनुसार लिखें। जो भक्त अपना कल्याण चाहते हैं, उनपर भगवान् कृपा करते ही हैं। गीताजी में भक्ति की बात विशेषता से आई है; अपना कोई आग्रह नहीं रखकर गीताजी का गहन अध्ययन किया जाय तो गीताजी का मूल सिद्धान्त भक्तियोग मालूम देता है। गीताजी के अनुसार ज्ञानयोग और कर्मयोग साधन हैं और भक्तियोग साध्य है।
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