शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

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*दादू कदि यहु आपा जाइगा,*
*कदि यहु बिसरै और ।*
*कदि यह सूक्ष्म होइगा, कदि यहु पावै ठौर ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक ही प्रश्न महत्वपूर्ण है, पूछ लेने जैसा है, रोएं-रोएं में कंपित कर लेने जैसा है–कैसे तुम्हारे गीत गाऊं ? कैसे तुम्हें पुकारूं ? कैसे तुम मेरे मन-मंदिर में विराजमान हो जाओ ? कैसे तुम्हारा जागरण, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारी चेतना मेरा भी जागरण बने, मेरी भी ऊर्जा बने, मेरी भी चेतना बने ? 
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मेरे भीतर सोया मालिक, मेरे भीतर सोया माली कैसे जगे, कि मेरी बगिया में भी फूल हों, चंपा के हो, चमेली के हों, गुलाब के हों और अंततः कमल के फूल खिलें ! यह मेरा जीवन कीचड़ ही न रह जाए। यह कीचड़ कमल में रूपांतरित होनी चाहिए। 
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और यह कमल में रूपांतरित हो सकती है। कीमिया कठिन भी नहीं है। जरा सी जीवन की समझ की बात है। बेसमझे सब व्यर्थ होता हो जाता है। और जरा सी समझ, बस जरा सी समझ–और मिट्टी सोना हो जाती है। अमी झरत, बिससत कंवल ! एक थोड़ी सी क्रांति, एक थोड़ी सी चिनगारी।
नाम बिन भाव करम नहिं छूटै॥
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उस चिनगारी का इशारा कर रहे हैं दरिया कि जब तक तुम्हारा कर्ता का भाव न छूट जाए तब तक तुम परमात्मा को स्मरण न कर सकोगे; या परमात्मा का स्मरण कर लो तो कर्ता का भाव छूट जाए। कर्ता के भाव में ही हमारा अहंकार है। कर्ता का भाव ही हमारे अहंकार का शरण स्थल है–यह करूं वह करूं, यह कर लिया वह कर लिया, यह करना है वह करना है। 
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कृत्य के पीछे ही कृत्य के धुएं में छिपा है तुम्हारा दुश्मन। और अगर इस अहंकार के कारण ही तुमने मंदिर में पूजा की और मस्जिद में नमाज पढ़ी और गिरजे में घुटने टेके, सब व्यर्थ हो जाएगा, क्योंकि वह अहंकार इन प्रार्थनाओं से भी पुष्ट होगा। क्योंकि ये प्रार्थनाएं भी उसी मूल भित्ति को सम्हाल देंगी, नयी-नयी ईंटें चुन देंगी–मैं कर रहा हूं !
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प्रार्थना की नहीं जाती, प्रार्थना होती है–वैसे ही जैसे प्रेम होता है। प्रेम कोई करता है, कर सकता है ? कोई तुम्हें आज्ञा दे कि करो प्रेम, जैसे सैनिकों को आज्ञा दी जाती है बाएं घूम दाएं, घूम, ऐसे आज्ञा दे दी जाए करो प्रेम। दाएं-बाएं घूमना हो जाएगा, देह की क्रियाएं हैं; अगर प्रेम ? प्रेम तो कोई क्रिया ही नहीं है, कृत्य ही नहीं है। 
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प्रेम तो भेंट है विराट की ओर से। प्रेम तो अनंत की ओर से भेंट है। उन्हें मिलती है जो अपने हृदय के द्वार को खोलकर प्रतीक्षा करते हैं। प्रेम तो वर्षा है। अमी झरत ! यह तो ऊपर से गिरता है आकाश से इसलिए इशारा है। एक कि अमृत तो आकाश से झरता है और कंवल जमीन पर खिलाता है। आकाश से परमात्मा उतरता है और भक्त पृथ्वी पर खिलता है। 
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भक्त के हाथ में नहीं है कि अमृत कैसे झरे, लेकिन भक्त अपने पात्र को तो फैलाकर बैठ सकता है ! भक्त बाधाएं तो दूर कर सकता है ! पात्र ढक्कन से ढका रहे, अमृत बरसता है, तो भी पात्र खाली रह जाएगा। पात्र उल्टा रखा हो, तो भी पात्र खाली रह जाएगा। पात्र फूटा हो तो भरता-भरता लगेगा और भर नहीं पाएगा। कि पात्र गंदा हो, जहर से भरा हो, कि अमृत उसमें पड़े भी तो जहर में खो जाए। पात्र को शुद्ध होना चाहिए, जहर से खाली।
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और ज्ञान पांडित्य–जहर है। जितना तुम जानते हो उतने ही बड़े तुम अज्ञानी हो। क्योंकि जानने से भी तुम्हारा अहंकार प्रबल हो रहा है कि मैं जानता हूं ! जितने शास्त्र तुम्हारे पात्र में हों उतना ही जहर है। पात्र खाली करो। पात्र बेशर्त खाली करी। क्योंकि उस खाली शून्यता में ही निर्दोषता होती है, पवित्रता होती है~ओशो

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