गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

*४५. स्वारथ कौ अंग १/५*

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*४५. स्वारथ कौ अंग १/५*
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स्वारथ बंधी आतमा, निस दिन करै उपाइ ।
कारज कोई सर्या, जगजीवन जुगि१ आइ ॥१॥
१. जुगि=कलियुग में ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा स्वार्थ से बंधी है और रात दिन उसमें ही लगी है । इस कलियुग में किसी का सच्चा कार्य ऐसे कभी पूरा हो सकता है क्या ।
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स्वारथ करतां सब गया, माल मुलक रग राज ।
जगजीवन केता खप्या, रांम बिमुख बेकाज ॥२॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि स्वार्थ से धन देश आनंद व राज्य सभी चले गये हैं । राम विमुख हो कितने ही इसमें अपना जीवन खो बैठे हैं ।
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जगजीवन स्वारथ करै, समझै नहीं गंवार ।
स्वाद बंधाना जीभ कै, सोई जाति चमार ॥३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीव मूर्ख बन कर स्वार्थ करता है । जीभ तो चमड़े की है इसके स्वाद में बंधना यह तो चर्मकारों सा कार्य है जो चमड़े का कार्य करते हैं या उसके पारखी है ।
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जौरि सयानप२ जीव मंहि, स्वारथ स्वाद बिलास ।
ताथैं निरफल रांम भगति बिन, कहि जगजीवनदास ॥४॥
२. सयानप=बुद्धिमता ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीव बुद्धि मता लगाता है जिससे कि स्वाद व स्वार्थ सधते रहे । किंतु राम भक्ति के बिना यह सब निष्फल है ।
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स्वारथ दुविध्या ऊपजै, जहँ दुविध्या तहँ दोष ।
कहि जगजीवन रांम न सुमरै, तिनकों सुकति न मोक्ष ॥५॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि स्वार्थ से दुविधा उपजती है । जहां दुविधा होती है वहां विकार आते हैं । संत कहते हैं कि बिना प्रभु स्मरण के मोक्ष भी नहीं मिलता है ।
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इति स्वारथ कौ अंग संपूर्ण ॥४५॥

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