गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

*गुरूपकार*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू मन भुजंग यहु विष भर्या,*
*निर्विष क्योंही न होइ ।*
*दादू मिल्या गुरु गारड़ी,*
*निर्विष कीया सोइ ॥*
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*गुरूपकार ~ साषी लापचारी की ॥१*
(इनका अर्थ “सुमिरण कौ अंग” की साषियों में देखें ।)
अमर जड़ी पानैं पड़ी, सो सूंघी सति जाणि ।
बषनां बिसहर सौं लड़ै, न्यौल जड़ी कै पाणि ॥१॥
जे डँक लागै सरप का, ताथैं लहरि न जाउँ ।
बिसपालाण बषनां कहै, नाराइण कौ नाउँ ॥२॥
पद
म्हारौ गारडू गुरदेव ।
राम नाम मंत्र जाकै अलख अभेव ॥टेक॥
भामिनी भुजंग लागै, तीनि डाढ़ाँ डंक लागै,
बिषै बिकराल जाकी, लहरि आवै ।
अमर वोषदि खुवाड़ै, अकाले मरताँ जिवाड़ै,
गाडूड़ौ ढौलावै बाबौ, अंम्रत पावै ॥
श्रप की सब कुली जाणै, बाँबी माँहतैं बाहरि आणैं,
नाद अनहद पूरि बाबौ, बेणि पणि बाबै ।
येक आखिर मंत्र दाखै, पिटारा मैं कीलि राखै,
दाढ पणि बांधै बाबौ, चौड़ै खिलावै ॥
तीनि आखर मंत्र मारै, चौथी टाकर बिष उतारै,
आतमा अचेत चेतै, आपौ संभालै ।
बिष रहै नहीं बाकी, अमीं बसै जीभ जाकी,
ब्रह्म बाणी बोलि बाबौ, सीचौ सौ रालै ॥
काँवरू करतारि पठायौ, सो हमारै भागि आयौ,
बिष कौ पालण बाबौ, अंम्रत पायौ ।
अमर जड़ी येक जाकै, सीस ऊपरि सदा राखै,
बषनां गुरदेव दादू, जगत सब ज्यायौ ॥३८॥
गारडू = सर्प का विष उतारने वाला । अलख = अलक्ष्य जिसे चर्मचक्षुओं से न देखा जा सके “न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुसा । दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य मे योगमेश्वरं ॥गीता ११/८॥” अभेव = जिसका भेद, रहस्य, तत्त्व जानना संभव न हो । वेद जिसके लिये नेति-नेति कहते हैं । “न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥१०/२॥”
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भामिनी = स्त्री । भुजंग = सर्प = माया, अविद्या रूपी सर्पणी । तीनि डाढ़ा = तीन गुण सत्त्व, राजस तथा तमस । डंक = तीनों गुणों का प्रभाव, रंग । विषै = विष, विषयवासना । लहरि = खुमारी ।
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अमरवोषदिक = रामनाम-स्मरण, भक्ति । खुवाड़ै = खिलाते हैं । अकाले = असमय में । गाडूड़ौ ढोलावै = विषय भोगों को ढुला देते हैं, भोगना बंद कर देते हैं । बाबौ = संसारीजीव, साधक ।
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सर्प की कुली = जातियाँ, प्रकार; माया; अविद्या अष्टधा बताई गई है “भूमिरापोनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥७/४॥” बांबी = बिल, संसार, विषयों के दलदल रूपी संसार में से । बेणि = पूंगी । बावै = बजाता है ।
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नाद = घोष । अनहद = निस्सीम घोष, जो किसी/किन्हीं उपकरणों के उत्पन्न न होता हो । वस्तुतः प्रश्न उठाया जाता है कि सामान्यजनों को तो नाद सुनाई देता नहीं है जबकि योगियों को सुनाई देता है । यह क्या बात है । इसपर इतना समझ लेना आवश्यक है कि कुंडलिनी जागृत हो जाती है तब वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट होकर सहस्त्रार तक जाती है । यह बिलकुल निर्वात होती है । जब इसका सम्बन्ध सहस्त्रारचक्र से हो जाता है तब इसमें “बाजै पवन प्रचंड” प्रचंड वायु बोलने लगती है । वह वायु कभी किंकणी, कभी नुपुर, कभी मृदुंग, कभी झालर कभी वेणु आदि अनेकों की ध्वनियों जैसी बजती है । यही अनहदनाद का बजना है । इसीलिये इसे बिना किसी साधनों के बजने वाला नाद कहा जाता है । ये नाद मस्तकस्थ सहस्त्रारचक्र में ही बजता हैं । अतः इन्हें निस्सीम भी कहा गया है । येक आखिर मंत्र दाखै = एक अक्षर का मंत्र सुनाकर । पिटारा = बाँस की सीकों से बना छोटा सा पिटारा जिसमें, कीलि = सर्प रूपी माया को बंद करके रखे । दाढ़ = * । चौड़े = खुले में । सपेरा, सर्प को बिन बजाकर अपने अधीन करके उसे एक जड़ी सुंघाता है, उसके दांतों को निकाल देता है, पिटारे में बन्द रखता है और चौराहें पर खुलेआम नचाता है ।

तीनि आखर = त्रिगुणात्मिका माया रूपी मंत्र को मारकर चौथे टाकर = चौथे मंत्र = रामनाम से विषय-वासना रूपी विष को उतार देते हैं । अचेत = अज्ञानी । चेतै = ज्ञानी हो जावे । आपौ = निजात्मा का बोध हो जाये ।
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काँवरू = कालबेलिया, सपेरा । गुरु विष कौ पालण = विष को रखने वाले सर्प को अमृत पिलाया । विषयों में रमने वाले जीव को रामनाम का अमृत पिलाया । अमरजड़ी = रामनाम रूपी जड़ी-बूँटी ।.
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मेरे गुरुदेव गारडू हैं जिनके पास माया और माया जन्य संसार के विषयभोग रूपी सर्पणी को मंत्रित करने के लिये अलक्ष्य और अभेद्य रामजी के नाम का मंत्र है । जिनको स्त्री रूपी सर्पणी = माया अपने तीन डाढ़ों रूपी तीनों गुणों से काट लेती है उन पर विषय-विकार रूपी विकराल विष का लहरि = खुमारी = नशा चढ़ा ही रहता है ।
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गुरुमहाराज ऐसे विषयासक्त जीवों को अमर औषधि रूपी रामनाम का रसास्वादन कराते है जिससे उनकी अकाल मृत्यु टल जाती है और वे विषयों को भोगना बंद कर देते हैं क्योंकि गुरुमहाराज उन्हें अमृत रूपी रामनाम का पान जो करा देते हैं ।
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गुरुमहाराज माया रूपी सर्पिणी का सारा रहस्य जानते हैं । उसको उसके प्रभाव सहित साधक के शरीर रूपी बिल में से निकाल फेंकते हैं और उपदेश रूपी वेणु = पूंगी बजाकर साधक को अनहदनाद सुनने का अधिकारी बना देते हैं ।
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इस माया रूपी सर्पिणी को वशीकृत करने के लिये एक अक्षर का मंत्र पढ़कर इसे पिटारे रूपी शरीर में ही बांध = जज्ब कर देते हैं । (मन, माया, अज्ञान समाप्त होना कहे जाते अवश्य हैं किन्तु इनकी व्यावहारिक सत्ता बनी रहती है । ये व्यष्टि विशेष के द्वारा नियंत्रित तो होते हैं, मरते नहीं है । इनकी गति संसार की ओर से हटकर प्रभु की ओर हो जाती है । यही इनका बांधकर रखना है ।) गुरुमहाराज इस माया रूपी सर्पणी की तीनों दाढ़ों रूपी तीनों गुणों को भी बांध डालते हैं ।(गुणों को साम्यावस्था में कर देना ही उन्हें बांध देना है ।
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जब तीनों गुणों की स्थिति विषम होती है तब ही वे कार्य करने में सक्षम होते हैं अन्यथा साम्यावस्था में तो वे निष्क्रिय ही पड़े रहते हैं । मात्र क्रिया राजस गुण के कारण ही होती है, सत्व तथा तामस तो स्वभावतः ही निष्क्रिय हैं ।) और फिर साधक को संसार में मुक्त रूप से वर्तने के स्वतंत्र कर देते हैं । (जनकादि राजा इसके उदाहरण हैं “कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः” गीता ३/२०) तीन अक्षर रूपी तीनों गुण को मार देते हैं । चौथे मंत्र रूपी रामनाम से माया रूपी सर्पणी का विष रूपी विषय भोगासक्ति को समाप्त कर देते हैं ।
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इससे अज्ञान में जीने वाले जीव ज्ञानवान होकर स्वस्वरुपस्थ हो जाते हैं ।(स्वयं को जानलेना ही आपा संभालना है ।) इस अवस्था में सांसारिक भोगविलासों को प्रति आसक्ति रूपी विष का लेश भी शेष नहीं रह जाता । उल्टे उसकी जिव्हा में रामनाम रूपी अमृत का वास हो जाता है जिससे साधक सिद्ध होकर ब्रह्मसाक्षात्कार की वाणी का उच्चारण करने लग जाता है । “ब्रह्म छकै बाणी बकै, दावी दबै स नाहिं । सिंध तरँग निपजै जिमी, बाणी उपजै ताहि” ॥)
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परमात्मा ने कृपा करके गुरुदेव रूपी कालबेलिया को इस संसार में भेजा और वह हमारे सौभाग्य से हमारे पास स्वतः ही आ गया । हम विषयभोग रूपी विष को पालने वाले थे । किन्तु गुरुमहाराज ने हमें निर्विष करके रामनाम रूपी अमृत का पान कराया ।
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उन गुरुमहाराज के पास रामनाम रूपी एक अमर जड़ी है जिसको वे बहुत आदर और सत्कार के साथ अपने मस्तक पर रखते हैं । बषनांजी कहते हैं गुरुदेव दादू ने अमर होने की इस एक औषधि से सबको मरने से बचाकर अमर कर दिया है ॥३८॥
(क्रमशः)

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