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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित पुस्तक के परिशिष्ट १ में आगे नीचे लिखी चौपाई और दो दोहे भी आये हैं । उनका भाव तो ऊपर आ चुका है । ज्ञात होता है कि किसी कथावाचक ने अपनी पुस्तक में पूर्णमल चरित्र से लिखा हो । उससे प्रति लिपी जो हुई है उन पुस्तकों में आती हैं । सब में नहीं सो यहाँ लिख दी जाती हैं अर्थ तो स्पष्ट ही है ॥
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चौपाई-
तत से लगे उभय संग रहिये, अन्तर कथा चली सो कहिये ।
नृपति शालिवाहन की नारी, महा कपटनी अति धूतारी१ ॥१॥
सुन्दर सुत सौति को जायो, रूप देख तासे मन लायो ।
अति हि बन्योसु अम्बुज नैना, महा संत मुख अमृत बैना ॥२॥
हित कर लीयो निकट बुलाई, मन मांही उपजी है बुराई ।
लज्जा छोड़ करो सु प्रसंगू, सन्मुख होकर देखो अंगू ॥३॥
कियो श्रृंगार न बरण्यों जाई, मनहु इन्द्र की रम्भा आई ।
मृग नयनी सो विगसी२ बोले, महा अडिग मन कबहुँ न डोले ॥४॥
कर पकर्यो सुन विनती मेरी, हो हूं सदा तुम्हारी चेरी ।
कह्यो करहि तो से यूं राजू, सर्वस्व दे सरूं सब काजू ॥५॥
कर मुक्ति३ कर कह्यो सुनाई, तुम तो लगी धर्म की माई ।
ऐसि कथा का लेहु न नाऊँ, नहिं तो प्राण त्याग मर जाऊं ॥६॥
काको पूत कौन की माई, दुख देहूँ तोहि कहूँ सुनाई ।
कीयो नहीं सु कह्यो हमारो, अबै कौन तो राखनहारों ॥७॥
कह्यो शहर से द्यो नृप घेरी, काढू नगर ढंढोरा फेरी ।
अब आई है बेर हमारी, कछु न राखूं मान्य४ तुम्हारी ॥८॥
कर से कर तू लियो मरोरी, करी कहाँ है तै कुछ थोरी ।
होहि चौरंग्यो प्रकट सु ऐंना, दूर करूं भुज देखत नैना ॥९॥
तजे अभूषण वस्त्र सु फारी, गई सु पति पै शीश उघारी ।
कह्यो मात मत आवे नेरो, तोउन छोड्यो मेरो केरों५ ॥१०॥
मेरी पति६ सो नेक न राखी, देखि शरीर सु प्रकट हि साखी ।
अब हूँ प्राण त्याग मर जाऊं, कहा जगत में मुख दिखलाऊं ॥११॥
देखि गात कामिनि को नैंना, पश्चात्ताप उपज्यो मन ऐंना७ ।
दहुँ८ दाँत बिच अँगुरी दीन्ही, कैसी पुत्र कमाई कीन्ही ॥१२॥
१. धूतारी=धूर्त । २. विगसी=हँसती हुई । ३. मुक्ती=छुड़ाकर । ४. मान्य=मान्यता । ५. केरो=पीछा । ६. पति=इज्जत । ७. ऐंना=प्रत्यक्ष । ८. दहुँ=दोनों ।
तब की मौज संतोषी नारी, दे सिरोपाव भरतार श्रृंगारी ।
तुमको दुष्ट बहुत दुख दीयो, पावेगो सो अपने कीयो ॥१३॥
पुत्र नहीं पर वैरी मेरो, अब कोई ल्यावे मत नेरो ।
कीज्यो दूर हाथ पग जाई, हमको मुख न दिखावे आई ॥१४॥
हृदय कियो सु वज्र समानं, उर अन्तर नहिं उपज्यो ज्ञानू ।
नीति अनीति कियो नहिं खेदू१, निरणै कर बूझ्यो२ नहिं भेदू३ ॥१५॥
काटि चरण कर नाख्यो कूपू, महा प्रवीण सु अजब अनूपू ।
तहाँ मच्छन्द्र गोरख आये, दरद देखि अरु अति दुख पाये ॥१६॥
करुणा करै रु भये कृपालु, बूझे पीर सु प्रेम दयालू ।
कौन चूक शासना४ दीन्ही, सो तो हम पै जाय न चीन्ही ॥१७॥
माई दीयो मिथ्या दोषू, राजा अति मान्यो मन रोषू ।
सौती सुत अति भई सुकूरी५, कीन्हे पिता हाथ पग दूरी ॥१८॥
वसै शून्य धू गाँव किहिं वासू, अपने पितु को नाम प्रकासू ।
वसै सही पुर मांडल गाऊं, नृपती शालिवाहन है नाऊं ॥१९॥
ना हम से कोइ भई बुराई, कर्म-संयोग न मेट्यौ जाई ।
लिख्यौ विधाता त्यूं ही होई, कोटि किये हूँ मिटै न सोई ॥२०॥
दोहा-
अब मोहि राखौ निकर हजूरी, चरण कमल से करौ न दूरी ।
भाग्य बड़े थे भेटे आई, तुम बिन दुती६ न और सुहाई ॥२१॥
भाग बड़े हैं पाइये, निर्मल साधू संत ।
आन मिलायें गैब७ में, कृपा करी भगवंत ॥२२॥
आये सद्गति करन को, निन्यानवें कोटि नरेश ।
भूपन काछ न८ भवन से, दे दे गुरु उपदेश ॥२३॥
चौपाई-
तब अम्रित फल करसे आप्र्यो, चौरंगी अपनी कर थार्प्यो ।
दियो मुदित ही शिर पर हाथू, होउ सहायक गोरखनाथू ॥२४॥
गुरु मच्छंदर शिष चौरंगू, उपजी अनुभव भक्ति अभंगू ।
आरती९ बढी सु आतम मांही, भगवत नाम विसारे नांही ॥२५॥
इहां रहो तुम द्वादश वर्षू , सुमरि सनेही मन करि हर्षू ।
रमे मच्छन्दर दे सुप्रबोधू, गोरख रहे सिखावत बोधू ॥२६॥
१. खेदू=जानने का कष्ट नहीं किया । २. बूझ्यो=समझा । ३. भेद=रहस्य । ४. शासना=दंड । ५. कूरी=क्रूरा । ६. दुती=दूसरा । ७. गैब=अकस्मात् । ८. काछन=निकालने । ९. आरती=विरक्तिः ।
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