बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

*४४. रस कौ अंग १०१/१०४*

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
.
*४४. रस कौ अंग १०१/१०४*
.
कहि जगजीवन आतमा, आतम अस्थल दीन ।
रांम अकल अबिगत अलख, पार ब्रह्म रस लीन ॥१०१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा का आत्मस्थल में दीन हो तब ही वह कला रहित न जाने जा सकनेवाले अलख पार ब्रह्म के आनंद में लीन होता है ।
.
प्रीति ठिकाणैं१ प्रेम रस, नांम ठिकाणैं नेह ।
ग्यांन ठिकाणैं गहर गुण, जगजीवन जस देह ॥१०२॥
(१. ठिकाणैं=स्थान)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रीति का जहाँ स्थान हैं वहाँ प्रेम रस है जहाँ स्मरण का स्थान प्राबल्य है वहाँ स्नेह है । जहां ज्ञान का स्थान है वहां गुण है इस प्रकार देह भासित होती है । जैसै भाव का प्राबल्य हो ।
.
हंस पिवैंगें रांम रस, प्रहरी२ माया मोह ।
जगजीवन किस बोल का, जीव मंहि करै अनोह३ ॥१०३॥
(२. प्रहरी=पहरेदार) (३. अनोह=स्नेहाभाव)
संत जगजीवन जी कहते हैं जो जीव हंस के समान ग्यानी हैं वे राम स्मरण का आनंद लेंगे और जो सिर्फ माया के रक्षक प्रहरी है वे मोह में रहेंगे । जैसी जीव की प्रवृति होगी वह वैसा ही उसी भाव से आसक्ति या स्नेह रखेगा ।
.
घर आंगन बैरी सरस, मीठा जल की सीर४ ।
गुरु प्रसादैं पीजिये, जगजीवन सौ नीर ॥१०४॥
(४. सीर=स्त्रोत)
संत जगजीवन जी कहते हैं जो जीव संसार में भले ही शत्रु हो किंतु भगवद् मार्ग में यदि वह मीठे जल के झरने सदृश है तो उसकी बात गुरु महाराज के प्रसाद या कृपा की भांति स्वीकार करनी चाहिये ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें