रविवार, 2 फ़रवरी 2025

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*दादू साहिब कसै सेवक खरा,*
*सेवक को सुख होइ ।*
*साहिब करै सो सब भला,*
*बुरा न कहिये कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। बुरा भी मैं हूं,भला भी मैं हूं।*
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अपने को भला कहने की बात तो बड़ी आसान है। अपने को महात्मा कहने की बात तो बड़ी आसान है। लेकिन अपने को दुरात्मा कहने की हिम्मत बड़ी है। कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। वह जो तुम्हें अच्छा लगता है, वह भी मैं हूं। वह जो तुम्हें बुरा लगता है, वह भी मैं हूं। दोनों ही मैं हूं। जिसको यह समग्र स्वीकृति, यह टोटल एक्सेप्टेबिलिटी समझ में आ जाए, वही कृष्ण के तत्व-दर्शन को ठीक से समझ पाएगा।
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कृष्ण बेबूझ हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं, युद्ध भी मैं और शांति भी मैं। दोनों ही मैं हूं, अंधेरा भी मैं, प्रकाश भी मैं। और जब दोनों की तरह तू मुझे देख पाएगा, तभी तू मुझे देख पाएगा। अगर तू बांटकर देखेगा, आधे को देखेगा, चुनकर देखेगा, तो तू मुझे कभी नहीं देख पाएगा। परमात्मा में चुनाव नहीं किया जा सकता। यू कैन नाट चूज। और अगर आपने चुनाव किया, तो वह परमात्मा आपके घर का होममेड परमात्मा होगा, घर का बछनाया हुआ। वह परमात्मा असली नहीं होगा।
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तो जैसा है, उसके लिए वैसे ही होने के लिए राजी होना पड़ेगा। अगर वह प्रलय है तो सही। अगर वह मृत्यु है तो सही। राजी हैं। अगर आपने कहा कि नहीं, हम तो जरा परमात्मा के चेहरे पर रंग-रोगन करेंगे। हम तो जरा शक्ल को सुंदर बनाएंगे। मेकअप में हर्ज भी क्या है? हम थोड़ा इसकी शक्ल को ठीक कर लें। अगर आपने ऐसा किया, तो जो आपके हाथ में लगेगा, वह आपके हाथ का बनाया हुआ परमात्मा होगा। उससे परमात्मा का कोई भी संबंध नहीं है।
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धार्मिक आदमी दुस्साहसी है। दुस्साहस उसका यह है कि जैसा है, ऐज इट इज़, वह उसे स्वीकार करता है। वह कहता है, यह भी तेरा और यह भी तेरा। जन्म भी तेरा और मृत्यु भी तेरी। दोनों के लिए मैं राजी हूं। इसलिए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, प्रलय भी मैं, सृजन भी मैं। दोनों ही मैं हूं। आपका हृदय ढलता है उसी रूप में, जिस रूप में आप परमात्मा को स्वीकार करते हैं। तोड़कर नहीं, जोड़कर, इकट्ठा, सबको लिए हुए।
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और जब सुबह आपके पैर में कांटा गड़े, तो यह मत सोचना कि शैतान ने गड़ाया। तब उसको भी सोचना कि परमात्मा ने गड़ाया; और परमात्मा ने आपको इस योग्य समझा कि कांटा गड़ाया, उसके लिए भी धन्यवाद दे देना। और जिस दिन फूल के लिए ही नहीं, कांटे के लिए भी परमात्मा को कोई धन्यवाद दे पाता है, उस दिन उसे मंदिरों में जाने की जरूरत नहीं रह जाती। वह जहां है, वहीं मंदिर आ जाता है।
*ओशो*
*गीता-दर्शन*

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