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*रस ही में रस बरषि है, धारा कोटि अनंत ।*
*तहाँ मन निश्चल राखिये, दादू सदा बसंत ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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“अवनि की तूंबी बनी है,
गगन के परदे लगे;
प्राण का है तार, जिसमें
नित्य नूतन स्वर जगे;
लिए बैठी गोद में यों
नियति सृष्टि-सितार को !
क्यों कस रहे हो तार को ?
क्या जन्म देना है नई झंकार को ?”
प्रकृति लिए बैठी है सितार को अपनी गोदी में और तुम भूल गए बजाना। तुम्हें याद ही न रही। तुम्हारा तारों से सम्बन्ध ही छूट गया। तुम्हारी अंगुलियों की कला जाती रही। तुम्हारे पास पैर हैं, पैरों में छिपी नाच की क्षमता है, उसे जगाना है।
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संन्यास इस जगत को फिर से एक उत्सव बनाने की कला है। इसलिए हजारों-हजारों को संन्यास दूंगा। रंग देना है सारी पृथ्वी को बसन्त के इस रंग से। गैरिक रंग बसन्त का रंग है। मधुमास लाना है पृथ्वी पर, इसलिये संन्यास दे रहा हूँ । पर याद रखना, भूलकर भी मेरे संन्यास को पुराने संन्यास से एक मत समझ लेना।
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यह बात ही और है। यह आयाम ही और है। मगर प्रवेश करोगे तो ही स्वाद पा सकोगे। अब तुमने पूछा है तो जरूर तुम्हारे मन में भी संन्यास लेने की कहीं-न-कहीं छिपी हुई कोई कामना होगी, नहीं तो पूछते ही क्यों ? कहीं सुगबुगाता होगा कोई बीज टूटने को।
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कहीं आतुर हो गई होगी कोई बात। कोई तार तुम्हारे भीतर भी झनझना उठा होगा। और जानने का एक ही उपाय है: होना। संन्यास कोई ऐसी बात नहीं कि तुम बाहर-बाहर दर्शक की तरह खड़े होकर देखते रहो, पूछते रहो, हजारों लोगों को संन्यास मैं क्यों दे रहा हूँ ?
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जरा यह भी तो पूछो कि हजारों लोग संन्यास क्यों ले रहे हैं ! जरूर हजारों लोगों के हृदय में कुछ बज उठा होगा। मैंने उनके तार कहीं छू दिये हैं। वही व्यक्ति सम्यक रूपेण जीता है जो परमात्मा को जान लेता है और वही सम्यक रूपेण मरता है जो परमात्मा को जानकर मरता है।
आज इतना ही। - ओशो
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