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*राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम ।*
*दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि #राम जब युद्ध विजय के बाद अयोध्या लौटे, राजगद्दी पर बैठे, तो उन्होंने एक बड़ा दरबार किया और सभी को पदवियां दीं, पुरस्कार बांटे, जिन-जिन ने भी युद्ध में साथ दिया था। लेकिन #हनुमान को कुछ भी न दिया और हनुमान की सेवाएं सबसे ज्यादा थी।
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#सीता बड़े पसोपेश में पड़ी। वह कुछ समझ न पाई कि यह चूक कैसी हुई! छोटे-मोटों को भी मिल गया पुरस्कार। पद मिले, आभूषण मिले, बहुमूल्य हीरे मिले, राज्य मिले। हनुमान--जिनकी सेवाएं सबसे ज्यादा थीं, उनकी बात ही न उठी। वे कहीं आए ही नहीं बीच में। राम भूल गए ! यह तो हो नहीं सकता।
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राम को याद दिलाई जाए, यह भी सीता को ठीक न लगा। याद दिलाने का तो मतलब होगा, शिकायत हो गई। तो उसने एक तरकीब की--कि कहीं हनुमान को बुरा न लगे, इसलिए उसने हनुमान को चुपचाप बुला कर अपने गले का मोतियों का बहुमूल्य हार उन्हें पहना दिया। और कहते हैं, हनुमान ने हार देखा, तो उसमें से एक-एक दाना मोती का तोड़-तोड़ कर फेंकने लगे।
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सीता ने कहाः अब मैं समझी कि राम ने तुझे क्यों कोई उपहार न दिया। यह तू क्या कर रहा है ? ये बहुमूल्य मोती है। ये मिलने वाले मोती नहीं हैं, साधारण मोती नहीं हैं। हजारों साल में इस तरह के मोती इकट्ठे किए जाते हैं, तब यह हार बना है। ये सब मोती बेजोड़ हैं। यह अमूल्य हार पहनने के लिए है। तू यह क्या करता है ?
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हनुमान बोलेः यह हार पत्थर का है। इसे मूर्ख मनुष्य भला गले में पहन सकते हों, मैं तो राम-नाम को ही पहनता हूं। और मैं एक-एक मोती को चख कर देख रहा हूं, इसमें राम-नाम का कहीं स्वाद ही नहीं है। इसलिए फेंकता जा रहा हूं। शायद राम ने इसीलिए कोई पुरस्कार हनुमान को नहीं दिया। क्योंकि हनुमान के हृदय में तो राम थे। पुरस्कार तो प्रतीक होगा। जिसके पास राम हैं, उसे क्या पुरस्कार ?
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जिनने प्रभु की थोड़ी सी पहचान पाई है, उसे प्रतिमा की जरूरत नहीं है; उसे मंदिर की जरूरत नहीं है; उसे पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है। तब तो #मलूकदास कहते हैं कि राम का नाम भी नहीं लेता मैं। अपनी मस्ती में मस्त हूं। अब तो राम मेरा नाम लेता है।
– ओशो, कन थोरे कांकर घने
प्रवचन - १०, अवधूत का अर्थ
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