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*मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।*
*आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*ख. परिच्छेद १*
*श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र(स्वामी विवेकानन्द)*
*(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द)*
*(१)नरेन्द्र की श्रेष्ठता*
आज रथयात्रा का दूसरा दिन है, १८८५ ई., आषाढ़ संक्रान्ति । भगवान श्रीरामकृष्ण प्रातःकाल बलराम के घर में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । नरेन्द्र की महानता बतला रहे हैं –
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"नरेन्द्र आध्यात्मिकता में बहुत ऊँचा है, निराकार का घर है, उसमें पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, पर उनमें उसकी तरह एक भी नहीं ।
"कभी कभी मैं बैठा-बैठा हिसाब करता हूँ तो देखता हूँ कि पद्मों में कोई दशदल है तो कोई षोड़शदल और कोई शतदल, परन्तु नरेन्द्र सहस्रदल है ।
"अन्य लोग घड़ा, लोटा ये सब हो सकते हैं, परन्तु नरेन्द्र एक बड़ा मटका है ।
"तालाबों की तुलना में नरेन्द्र सरोवर है ।
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"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखवाला रोहित मछली है, बाकी सब छोटी-मोटी मछलियाँ हैं ।
"वह बड़ा पात्र है - उसमें अनके चीजें समा जाती है । वह बड़ा सूराखवाला बाँस है ।
"नरेन्द्र किसी के वशीभूत नहीं है । वह आसक्ति, इन्द्रियसुख के वश में नहीं है । वह नर कबूतर है । नर कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच को खींचकर छुड़ा लेता है । पर स्त्री कबूतर चुप होकर बैठी रहती है।"
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तीन वर्ष पहले(१८८२ ई. में) नरेन्द्र अपने एक ब्राह्म मित्र के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये थे । रात को वे वहीं रहे थे । सबेरा होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "जाओ, पंचवटी में ध्यान करो ।" थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जाकर देखा था, वे मित्रों के साथ पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं । ध्यान के बाद श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था, "देखो, ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है ।
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व्याकुल होकर एकान्त में गुप्त रूप से उनका ध्यान-चिन्तन करना चाहिए और रो-रोकर प्रार्थना करनी चाहिए, 'प्रभो, मुझे दर्शन दो ।' " ब्राह्म-समाज तथा दूसरे धर्मवालों के लोकहितकर कर्म तथा स्त्री-शिक्षा, स्कूलों की स्थापना एवं भाषण आदि के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, "पहले ईश्वर का दर्शन करो । निराकार साकार दोनों का ही दर्शन । जो वाणी-मन से परे हैं, वे ही भक्त के लिए देहधारण करके दर्शन देते हैं और बात करते हैं ।
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दर्शन के बाद, उनका निर्देश लेकर लोकहितकर कार्य करने चाहिए । एक गाने में है - 'मन्दिर में देवता की स्थापना तो हुई नहीं, और पोदो(बुद्ध) केवल शंख बजा रहा है, मानो आरती हो रही हो । इसलिए कोई कोई उसे धिक्कारते हुए कह रहे हैं - अरे पोदो, तेरे मन्दिर में माधव तो है नहीं और तूने खाली शंख बजा-बजाकर इतना ढोंग रच रखा है ! उसमें तो ग्यारह चमगीदड़ रातदिन निवास करते हैं ।'
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"यदि हृदयरूपी मन्दिर में माधव की स्थापना करना चाहते हो, यदि भगवान को प्राप्त करना चाहते हो तो केवल भों-भों करके शंख बजाने से क्या होगा ? पहले चित्त को शुद्ध करो । मन शुद्ध होने पर भगवान पवित्र आसन पर आकर बैठेंगे । चमगीदड़ की विष्ठा रहने पर माधव को लाया नहीं जा सकता । ग्यारह चमगीदड़ अर्थात् ग्यारह इन्द्रियाँ ।
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"पहले डुबकी लगाओ । डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम । पहले माधव की स्थापना करो, उसके बाद चाहो तो व्याख्यान देना ।
"कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता । साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे 'लेक्चर' देने !
"लोगों को सिखाना कठिन काम है । भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है ।"
(क्रमशः)
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