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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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कहनी१ रहनी२ बिन काम न आव ही,
अंध क्यो दीप ले कूप टरेगो ।
नर तैं सुन नाम लियो शुक सारो३ ने,
तो व४ कहा कछु काम जरेगो५ ॥
विद्या धन्वंतरी की सीखी जु बादि ने
मूये को विष न कोई हरेगो ।
साधु सु शब्द असाधु ने सीखे हो,
रज्जब यूं नहिं काम सरेगो६ ॥१३॥
कहने१ के समान रहे२ बिना कहना कुछ भी काम नहीं आता, अंधा हाथ में दीपक लेकर कूप से कैसे बच सकता है ?
मनुष्य से काम प्रीति के शब्द सुनकर शुक पक्षी तथा मैना३ पक्षी वे ही शब्द रूप नाम उच्चारण करे तो वे४ क्या कुछ काम से जलेंगे५ ?
कोई वादी धन्वंतरी की विद्या सीख ले तो तो क्या ? मुरदे का विष तो नहीं हर सकता ।
ऐसे साधु के सुन्दर शब्द असाधु ने सीख लिये तो क्या ? ऐसे मुक्ति रूप कार्य तो सिद्ध३ नहीं हो सकता ।
(क्रमशः)
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