बुधवार, 2 अप्रैल 2025

परिचय ॥

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्त्तितम् ।*
*भ्रमं कर्मं किल्विषं, माया मोहं कंपितम् ॥*
*कालं जालं सोचितं, भयानक यम किंकरम् ।*
*हर्षं मुदितं सदगुरुं, दादू अविगत दर्शनम् ॥*
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परिचय ॥
निर्गुण रामा गाऊंगा । तहाँ मन अपना लाऊंगा ॥टेक॥
निर्गुण का गुण गाऊंगा, तब पाथर को पघलाऊंगा ।
पघलाइ करौं जैसा पाणी, सो मति बिरले जाणी ॥
निर्गुण का गुण लीणा, तब अगनि मांहि घी थीणा ।
थीज्या पघलि न जाई, सो सहजैं रहयौ समाई ॥
निर्गुण का गुण लाधा, तब जलि बैसंदर दाधा ।
यहु बैसंदर नांहीं, वो अगम अगोचर मांहीं ॥
निर्गुण का गुण दाखूँ, आंधी मैं दीपक राखूँ ।
जिहिं की निर्मल जोति न डोलै, बषनां वै ही बाणी बोलै ॥४२॥
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मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का नाम स्मरण करूंगा । मैं अपनी चित्तवृत्तियों को सर्वतोभावेन उसी में लगा दूंगा ।
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जब मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का स्मरण करूंगा तब सांसारिक विषय भोगों से कठोर हुए पत्थर रूपी हृदय को भी आर्द्र कर डालूंगा । उस हृदय को इतना अधिक आर्द्र करुंगा कि वह जल जैसा पतला, निर्मल और मृदु हो जायेगा । हृदय को सांसारिक विषयभोगों से सर्वथा उपराम करके भगवन्मय बनाने की बुद्धि = युक्ति को कोई कोई ने ही जानी है ।
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“मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्माम्वेत्ति तत्त्वतः ॥
तथा ‘विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज्य रसोप्यस्य परंदृष्ट्वा निवर्तते ॥
जब साधक निर्गुण-निराकार के गुण = स्वरूप में लीन हो जाता है तब ब्रह्म रूपी अग्नि में घी रूपी चित्तवृत्ति सर्वथा थीणा = अचल हो जाती है । एकबार चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है तब वह पुनः विषयभोगों की ओर उन्मुख होकर उनमें आसक्त नहीं होती । वह तो सहज स्वाभाविक रूप में निजानंदस्वरूप स्वात्मा में ही अचल रूपेण संस्थित रहती है ।
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जब साधक निर्गुण परमात्मा स्वरूप हो जाता है तब सहस्त्रारचक्र से स्त्रावित जल रूपी रामरसामृत मूलाधारचक्रस्थ सांसारिक विषयभोग-स्पृहा रूपी अग्नि को दग्ध कर देता है । जो अगम्य, अगोचर ब्रह्म का साक्षात्कार कर ब्रहमरूप हो गये हैं उनके लिये विषयभोगों की जननी माया और तज्जन्य संसार शांतस्वरूप = अप्रभावकारी हो जाते हैं । क्योंकि माया अनादि तो है किन्तु ज्ञानोपरांत इसका बाध हो जाता है, यह शांत हो जाती है ।
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बषनांजी अपने लिये कहते हैं, मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा के नाम का स्मरण करता हूँ तथा संसार रूपी आंधी में भी अपनी वृत्ति रूपी दीपक की लौ को निश्चल रखता हूँ । जिसकी-जिस दीपक की, जिस साधक की चित्तवृत्ति रूपी दीपक की लौ अचल रहती है वही ब्रह्मसाक्षात्कार जन्य अनुभववाणी कहता है ।
‘ब्रह्म विद्ब्रह्मैव भवति ।’ मुण्डकोपनिषद् ।
‘ब्रह्म रूप अहि ब्रह्मवित, ताकी वाणी वेद ।
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छेद ।’ विचारसागर ३/१० ॥
‘जानत तुम्हहिं तुम्हहि होइ जाही ।’ मानस ।
‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित’ ॥गीता॥४२॥
(क्रमशः)

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