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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
आज से "श्री दादू पंथ परिचय" का प्रकाशन यहां प्रारंभ कर रहे है | इस ग्रन्थ में पंथ के सभी आचार्यों का विवरण = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान = ने दिया है | परम दयालु दादू जी की कृपा से ही यह संभव हुआ है, उन्हें बारम्बार दण्डवत "सादर सविनय सत्यराम" ।संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज एवं गुरुवर्य महामण्डलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी को बारम्बार दण्डवत "सादर सविनय दादूराम~सत्यराम" ।
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*= श्री दादूजी का अति संक्षिप्त परिचय =*
श्री दादूजी महाराज का संपूर्ण चरित्र विस्तार से “श्रीदादू चरितामृत” ग्रंथ में आ गया है तो भी श्री दादूजी महाराज ही श्री दादूपंथ के आद्याचार्य हैं, अत: उनका यहाँ अति संक्षिप्त परिचय देना परमावश्यक समझ कर दिया जाता है - विक्रम सं. की १६ वीं शताब्दी में राजस्थान में बहुत ही हलचल हो रही थी । मुसलमानों द्वारा देश में अनाचार, अत्याचार आदि की वृद्धि हो रही थी तथा आपस की भेद भाँति से क्लेश ही बढ रहे थे ।
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उस स्थिति को इतिहास के ज्ञाता विज्ञ भली भाँति जानते ही है । उस समय राजस्थान प्रान्त को एक ऐसे संत की आवश्यकता थी, जो समभाव पूर्वक सब को सन्मार्ग का उपदेश देकर अनाचारादि दोषों से बचा कर सन्मार्ग में लगा सके । इसीलिये भगवान् ने सनकादिक में प्रथम सनक मुनि को आज्ञा दी कि तुम अहमदाबाद के मेरे भक्त लोधीराम नागर ब्राह्मण के पौष्य पुत्र बनो, फिर आगे करने योग्य कार्य का उपदेश मैं स्वयं ही आकर करूँगा ।
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सनक जी ने भगवान् की आज्ञा स्वीकार की और शीघ्र ही अपनी योग शक्ति से मार्ग में जाते हुये लोधीराम नागर के सामने संत रूप से प्रकट हो गये । लोधीराम ने संत को देखकर श्रद्धा से प्रणाम किया । संतजी ने उसे उदास देखकर, उदासी का कारण पूछा । लोधीराम ने कहा - “भगवन् ! आपकी कृपा से अन्य सब तो आनन्द है किन्तु पुत्र न होने से सदा मेरा मन दु:ख सागर में निमग्न रहता है ।”
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यह सुनकर संत जी ने कहा - तुम्हारे औरस पुत्र तो नहीं होगा, पौष्य पुत्र प्राप्त होगा । तुम प्रात: काल साबरमती नदी में स्नान करके उसके तट पर भजन करने बैठते हो, वहाँ ही नदी में बहता हुआ एक बालक आयेगा, उसे ही पुत्र मान कर अपने घर से जाना । उस महान् तेजस्वी बालक से तुम्हारा कल्याण ही होगा, ऐसा वर देकर संत वहाँ ही अन्तर्धान हो गये । उनको अपने सामने ही अन्तर्धान होते हुये देखकर लोधीराम को अति आश्चर्य हुआ और विश्वास भी हो गया कि ये तो कोई महान् संत थे । इनका वचन व्यर्थ नहीं सकता, अब मुझे पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।
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घर पर जाकर लोधीराम ने उक्त संत के वर देने की बात अपनी पत्नी को भी कहा । वह भी सुनकर हर्षयुक्त हो बोली - आपकी चिरकाल की तपस्या का फल तो भगवान् देंगे ही । उक्त संत के वर से दोनों पति - पत्नी को अति संतोष हुआ ।
(क्रमशः)
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