*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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ग्रंथ के नामकरण में हेतु यद्यपि दादूजी महाराज को वृद्ध(ब्रह्म) ने ही साधन पद्धति बताई थी । इससे इसका नाम “ब्रह्म संप्रदाय” ही होना चाहिये था । सो ठीक है, दादूजी के शिष्यों तक यह संप्रदाय “ब्रह्म संप्रदाय” ही कहा जाता था । किन्तु पौत्र शिष्यों के समय तक समुदाय बहुत बढ गया था और उस समय कबीर पंथ आदि पंथ प्रचलित हो गये थे । इससे “ब्रह्म संप्रदाय” को भी साधारण जन “दादूपंथ” बोलने लग गये थे । इसी कारण दादूजी के पौत्र शिष्य भी अपने को दादूपंथी कहने लग गये थे । ऐसा अन्य संप्रदायों में भी हुआ है -
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१ - जैसे “श्रीसंप्रदाय” को आगे चलकर “रामानुज संप्रदाय” कहने लगे हैं ।
२ - “सनकादिक संप्रदाय” को “निम्बार्क संप्रदाय”
३ - “शिव संप्रदाय” को “विष्णु स्वामी संप्रदाय” और आगे चलकर “वल्लभ संप्रदाय” कहने लगे हैं ।
४ - ब्रह्माजी से चले हुये “ब्रह्मा संप्रदाय” को “मध्वसंप्रदाय” कहने लगे हैं ।
यह अति प्रसिद्ध है ।
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इसी प्रकार ब्रह्म ने जो दादूजी को उपदेश दिया था वह पद्धति उपनिषद् काल से ही ॠषियों में चली आ रही थी, नूतन पद्धति नहीं है । इसी से इसका नाम पहले “ब्रह्म संप्रदाय” था किन्तु दादूजी के द्वारा उस पद्धति का कलियुग में अधिक प्रचार होने से उस पद्धति को ‘दादूपंथ’ कहना आरंभ कर दिया गया । दादूजी के मन में तो पंथ चलाने का विचार था ही नहीं । उन्होंने तो वृद्ध(ब्रह्म) के दिये हुये उपदेश का ही प्रचार किया था और उसके शिष्यों तक भी ‘दादूपंथ’ यह नाम करण नहीं हुआ था । ब्रह्म संप्रदाय ही बोला जाता था और सुन्दरदासजी ने भी ‘ब्रह्म संप्रदाय’ ही लिखा है ।
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किन्तु पौत्र शिष्यों के समय ‘दादूपंथ’ नाम पडा था । तब सब अपने को दादूपंथी कहने लग गये थे और दासजी ने तो “दादूपंथी परीक्षा” ग्रंथ भी लिख दिया था । अत: प्रचलित नाम का आश्रय लेकर ही इस ग्रंथ का नाम ‘दादूपंथ’ परिचय रखा गया है और यह नाम ही इस समय उचित ठहरता है । अब प्रथम “दादूपंथ” के आचार्यों का परिचय दिया जाता है कारण सर्व पंथ के आचार्य ही पूज्य होते हैं ।
(क्रमशः)
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