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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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५ आचार्य जैतरामजी महाराज
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फिर सिक्खों के सहित सिक्ख गुरु ने दादू द्वारे से प्रस्थान किया तब मार्ग में साथ के सिक्खों ने अपने गुरु जी से कहा - आपने जैतराम जी को शीश नमाकर प्रणाम कैसे किया ? हमारे गुरुओं की मर्यादा है, वे किसी अन्य को प्रणाम न करें ।
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तब सिक्ख गुरु गोविन्दसिंह जी ने कहा - प्रेम के प्रवाह में नियम बह जाता है । मेरे मन में तो यह विचार था ही नहीं कि वे दूसरे हैं, उनके मन में भी द्वैत भाव नहीं था । फिर वे भी तो एक महान् संत संप्रदाय के आचार्य थे । उन्होंने भी तो हाथ ऊंचा उठा कर प्रणाम किया था । और विचार द्वारा तो वे भी हमारी ही आत्मा थे, दूसरे कहां थे ।
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फिर आप सब ने भी उनकी विलक्षण शक्ति प्रत्यक्ष देखी थी और वहां के सभी संतों का हमारे प्रति कितना प्रेम था । उनके प्रेम व्यवहार का हम वर्णन भी नही कर सकते, अनुभव ही कर रहे हैं । अत: उनको प्रणाम करना दूसरे को प्रणाम करना नहीं था । फिर भी आप लोग आक्षेप करते हैं तो इस मर्यादा भंग रुप भूल का मुझ पर दंड कर सकते हैं ।
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तब सिक्खों ने परस्पर विचार किया क्या दंड किया जाय ? एक सिक्ख ने कहा - १००००)रु. दूसरे ने कहा - अधिक है ५०००)रु. करें । तीसरे ने कहा - गुरु महाराज के क्या कमी है ? एक लाख करना चाहिये । फिर अन्य सब ने कहा - इतना नहीं, समय देखना चाहिये । १२५)रु. बहुत हैं ।
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यही निर्णय हो गया सर्व सम्मति से, किन्तु गुरु गोविन्दसिंह जी ने फिर भी कहा -
मनहर -
देखे हैं महन्त और ठौर ठौर देश देश,
ऐसो कोऊ नांहिं देख्यो मारे फौज काम की ।
देखे हैं, नराणे बीच दादू पाट तेज पुंज,
काम क्रोध मार डारे आशा शुद्ध धाम की ॥
भाग्यवान ज्ञानवान पर उपकार वान,
देत दान जपे जाप माला राम नाम की ।
राजा बीच राणां बीच शाह पातशाह बीच,
सदा जैत जैत जैत जैत जैतराम की ॥१॥
दोहा -
माया मोह लागे नहीं, तन मन मेल्या मार ।
जैत सरीखा जौहरी, दादू के दरबार ॥२॥
(क्रमशः)
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