शनिवार, 6 सितंबर 2025

३. विरह कौ अंग ४५/४८

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*३. विरह कौ अंग ४५/४८*
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सुन्दर बिरहनि बहु तपी, मिहरि कछू इक लेहु । 
अवधि गई सब बीति कैं, अब तौ दरसन देहु ॥४५॥
विरहणी द्वारा दया-कामना : विरहिणी कहती है - मैने अपने प्रियतम के स्नेह की प्राप्ति के लिये नानाविध तपस्याएँ की, कष्ट सहे कि उनका कुछ भी स्नेह मिल जाय परन्तु वह सब कुछ व्यर्थ गया और इतना समय भी बीत गया ! हे प्रियतम ! अब तो कृपा कर मुझ को दर्शन देवें ॥४५॥
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सुन्दर बिरहनि यौं कहै, जिनि तरसावौ मोहि । 
प्रान हमार जात हैं, टेरि कहतु हौं तोहि ॥४६॥
हे प्रियतम ! आप से मेरी यही प्रार्थना है कि अब आप मुझे अधिक व्याकुल न कीजिये ! क्योंकि आप ने मुझ को अब भी तरसाया तो मेरे प्राण जाने में अधिक विलम्ब नहीं है । अतः मैं पुकार पुकार कर आपसे निवेदन करती हूँ आप मुझे तत्काल आकर दर्शन दें ॥४६॥
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ढोलन मेरा भावता, बेगि मिलहु मुझ आइ । 
सुन्दर ब्याकुल बिरहनी, तलफि तलफि जिय जाइ ॥४७॥
हे मेरे प्राणस्नेही प्रियतम ! (ढोलन !) कृपया शीघ्र ही आकर मुझ से मिलिये । क्योंकि आप की यह विरहिणी आपके बिना बहुत व्याकुल है । ऐसा न हो कि आप के विरह में तड़‌पते तड़पते इस के प्राण ही चले जायँ ॥४७॥
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लालन मेरा लाडिला, रूप बहुत तुझ माँहिं । 
सुन्दर राखै नैंन मैं, पलक उघारै नांहिं ॥४८॥
ओ मेरे परम स्नेही प्रियतम ! (लालन !) आप इतने अधिक रूप एवं सौन्दर्य से सम्पन्न हैं कि मैं आप के इस रूप एवं सौन्दर्य पर पूर्णतः आसक्त हूँ । अतः मैं इन को अपने नयनों में रख कर अपने पलकों को बन्द कर लूंगी कि आप निकल कर पुनः कहीं न भाग जावें ॥४८॥
(क्रमशः)  

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