गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

*७. अथ काल चितावनी कौ अंग १/४*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. अथ काल चितावनी कौ अंग १/४*
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काल ग्रसत है बावरे, चेतत क्यौं न अजांन ।
सुन्दर काया कोट मैं, होइ रह्या सुलतांन ॥१॥ 
मृत्युविषयक चेतावनी : अरे अज्ञानी पुरुष ! तेरी मृत्यु तुझे अपना ग्रास(भोजन) बनाने की सोच रही है, तूं सावधान क्यों नहीं होता । तूं अपने शरीररूप दुर्बल किले में बैठा हुआ स्वयं को बहुत बलशाली राजा मान रहा है ! ॥१॥
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सुन्दर काल महाबली, मारे मोटे मीर ।
तूं कौनैं की गिनति मैं, चेतत काहि न बीर ॥२॥
अरे ! यह मृत्यु अतिशय बलशाली है । इसने बडे बडे राजा महाराजाओं को मार गिराया है । तब तुझ दुर्बल प्राणी की उस के सामने क्या स्थिति है ! अतः मेरे भाई ! तूं अब भी सावधान हो जा ॥२॥
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सुन्दर काल गिराइ दे, एक पलक मैं आइ । 
तूं क्यौं निर्भय ह्वै रह्यौ, देखि चल्यौ जग जाइ ॥३॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - वह मृत्यु एक क्षण में यहाँ आकर तुझ को मार गिरायगा । तूं निश्चिन्त(निर्भय) होकर क्यों बैठा है ! तूं देख नहीं रहा कि उस के मारे हुए संसार के प्राणी तेरी आंखों के सामने(दूसरी योनियों से) जा रहे हैं ॥३॥
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सुन्दर चितवै और कछु, काल सु चितवै और । 
तूं कहुं जाने की करै, वहु मारै इहिं ठौर ॥४॥
अरे अज्ञ प्राणी ! तूं कुछ अन्य प्रकार से ही विचार कर रहा है, तथा तेरी मृत्यु का चिन्तन कुछ दूसरा है । तूं अपनी किसी लम्बी योजना की पूर्ति के लिये कहीं जाने की योजना बना रहा है, परन्तु तेरी मृत्यु तुझे इसी समय यहीं मारने की सोच रही है ॥४॥
(क्रमशः) 

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