मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ५३/५५*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*६. उपदेश चितावनी कौ अंग ५३/५५*
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दीया राखै जतन सौं, दीये होइ प्रकाश ।
दीये पवन लगै अहं, दीये होइ बिनाश ॥५३॥    
यदि तुम गुरु-उपदेश पूर्वक यत्न से दीपक की व्यवस्था कर लोगे तो तुम उस दीपक से प्रकाश(ज्ञान) भी अवश्य प्राप्त कर सकोगे । यदि तुम्हारे दीपक(ज्ञान) में सांसारिक अभिमान को पवन(वायु) का झोंका लग गया तो तुम्हारा दीपक तत्काल बुझ(विनष्ट हो) जायगा ॥५३॥
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सांई दीया है सही, इसका दीया नांहिं । 
यह अपना दीया कहै, दीया लखै न मांहिं ॥५४॥
भगवान् स्वसंवेदन से ही ज्ञेय(प्रकाशित होने योग्य) है, वह किसी अन्य ज्ञान से ज्ञेय नहीं है । (अर्थात् इस को प्रकाशित करने वाला कोई अन्य ज्ञान नहीं होता ।) वह अपनी स्थिति हमारे(हृदय) में बताता तो रहता है, परन्तु उसे हम समझ नहीं पाते ॥५४॥
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सांई आप दिया किया, दीया मांहिं सनेह । 
दीये दीये होत है, सुन्दर दीया देह१ ॥५५॥
इति उपदेश चितावनी कौ अंग ॥६॥
भगवान् ने ज्ञानरूप दीपक हमारे हृदय में प्रज्वलित कर दिया, उसमें स्नेह(भक्तिरूप तैल) भर दिया । दीपक(गुरु-ज्ञान) से दीपक जलता है(शिष्य को गुरुज्ञान से ज्ञान होता है) । तब शिष्य(का हृदय) भी ज्ञानमय हो जाता है । यही परम्परागत ज्ञानधारा कहलाती है ॥५५॥

उपदेश चितावनी का अंग सम्पन्न ॥६॥
(क्रमशः) 

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