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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग ९/१२*
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सुन्दर मछरी नीर मैं, बिचरत अपने ख्याल ।
बगुला लेत उठाइ कै, तोइ ग्रसै यौं काल ॥९॥
कोई मछली सरोवर के निर्मल जल में निश्चिन्ततापूर्वक उछल कूद मचा रही है; परन्तु कोई बगुला उसके विषय में यही सोच रहा है कि कब यह असावधान हो तो मैं इसे खा जाऊँ ॥९॥ (३)
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सुन्दर बैठी मक्षिका, मीठे ऊपर आई ।
ज्यौं मकरी वाकौं ग्रसै, मृत्यु तोहि लै जाइ ॥१०॥
या कोई मक्खी किसी मिठाई की दुकान पर मिठाई का रस चख रही है, परन्तु समीप ही दीवाल पर बैठी मकड़ी यही सोच रही है कि कब यह असावधान हो तो मैं इसे खा जाऊँ ॥१०॥ (४)
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सुन्दर तोकौं मारि है, काल अचानक आइ ।
तीतर देखत ही रहै, बाज झपट ले जाइ ॥११॥
तथा रे अज्ञ प्राणी ! तेरी मृत्यु भी तुझे अकस्मात् आकर उसी प्रकार मार देगी जैसे कोई बाज पक्षी तीतर को, देखते ही देखते, झपट कर ले जाता है ॥११॥ (५)
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सुन्दर काल जुरावरी, ज्यौं जाणैं त्यौं लेइ ।
कोटि जतन जौ तूं करै, तो हूं रहन न देह ॥१२॥
बलवती मृत्यु की महिमा : वह बलवती मृत्यु जब जैसे चाहती है वैसे ही किसी भी प्राणी को मार देती है । अतः तूं इसके विरुद्ध कितने भी यत्न करेगा उनमें तुझ को वह सफल नहीं होने देगी ॥१२॥
(क्रमशः)
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