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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*७. काल चितावनी कौ अंग ५/८*
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सुन्दर काल प्रवीण अति, तूं कछु समुझै नांहिं ।
तूं जानैं जीवत रहूं, वहु मारै पल माहिं ॥५॥
तेरी मृत्यु, इस विषय में, बहुत चतुर है । तूं उसकी चतुराई को नहीं समझ पायगा । तूं सोचता है कि तूं दीर्घकाल तक जीवित रहे; परन्तु तेरी मृत्यु तुझे इसी क्षण मार देना चाह रही है ॥५॥
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सुन्दर तेरी और कौं, ताकि रहे जमदूत ।
बैरी बैठै बारनैं, तूं सोवै किंहिं सूत ॥६॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते है - तुझे ले जाने के लिये आये ये यमदूत तेरी ओर ही एक टक देख रहे हैं । अरे ! मूर्ख ! तेरा वैरी तेरे घर के दरवाजे पर बैठा है, फिर भी तू इतना निश्चिन्त(सूत) होकर पैर पसारे हुए सो रहा है ! ॥६॥
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सुन्दर सूवा पींजरै, केलि करै दिन राति ।
मिनकी जानैं खांव कब, ताकि रही इहिं भांति ॥७॥
पांच दृष्टान्तों से तत्काल मृत्यु की चेतावनी : जैसे कोई तोता अपने पिंजरे में विविध प्रकार से खेल रहा है; परन्तु उसके सामने छिपकर बैठी हुई बिल्ली के रूप में उस की मृत्यु निरन्तर यह सोच रही है कि कब यह असावधान हो कि मैं इसे खा जाऊँ ॥७॥ (१)
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सुन्दर मूसा फिरत है, बिल तें बाहिर आइ ।
काल रह्यौ अहि ताकि करि, कबहुंक लेइ उठाइ ॥८॥
कोई चूहा अपने बिल से निकल कर निश्चिन्त होकर इधर उधर घूम रहा है; परन्तु वहीं उसकी मृत्यु के रूप में छिप कर बैठा सर्प निरन्तर यही सोच रहा है कि यह चूहा कब कुछ भी असावधान हो तो मैं इसे अपने भोजन का ग्रास बना लूं ॥८॥ (२)
(क्रमशः)
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