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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग १७/१९*
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नख सिख देह लगै भली, सुन्दर अधिक सुरूप ।
चेतनि हीरा चलि गयौ, भयौ अन्धेरा घूप ॥१७॥
यह मानव देह तभी तक प्रिय सुन्दर एवं मनोहर लगता है जब तक इस को प्रकाशित करने वाला हीरामणि इसमें रहकर इस को प्रकाशित करता रहता है । उस हीरा मणि के चले जाने पर इस मानव देह में घोर(= घुप) अन्धकार छा जाता है ॥१७॥
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सुन्दर देह सुहावनी, जब लगि चेतनि मांहिं ।
कोई निकट न आवई, जब यह चेतनि नांहिं ॥१८॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - संसार में इस मानव देह की शोभा तभी तक दिखायी देती है जब तक कि इसमें चेतन(आत्मा) विराजमान है । इस देह से चेतन के दूर होते ही, कोई मनुष्य इसके समीप भी नहीं आना चाहता ॥१८॥.
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चेतनि कै संयोग तें, होइ देह कौ तोल ।
चेतनि न्यारौ ह्वै गयौ, लहै न कोडी मोल ॥१९॥
इसमें चेतन(आत्मा) के उपस्थित रहने पर ही, इस देह का यथार्थतः मूल्याङ्कन(मोल तोल) हो सकता है । इस से चेतन के पृथक् होते ही इसको कोई कोडियों के भाव(सस्ते से सस्ता) भी खरीदने को तय्यार नहीं होता ॥१९॥
(क्रमशः)

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