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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*९. देहात्मा बिछोह को अंग १३/१६*
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सुन्दर देह हलै चलै, चेतनि के संजोग ।
चेतनि सत्ता चलि गई, कौंन करै रस भोग ॥१३॥
इस मानवदेह का समग्र कर्म(हलचल) तभी तक सम्पन्न होता है जब तक इस देह का सम्पर्क चेतन(आत्मा) के साथ रहता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जब इस देह से चेतन की सत्ता पृथक् हो जाती है तो इसमें सांसारिक भोगों को भोगने वाला कौन रह जाता है ! ॥१३॥
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हलन चलन सब देह कौ, चेतनि सत्ता होइ ।
चेतनि सत्ता बाहरी, सुन्दर क्रिया न होइ ॥१४॥
इस देह की बाह्य एवं आन्तरिक क्रियाओं का उचित सञ्चालन तभी तक होता रहता है, जब तक इस का अन्तःस्थित चेतन से सम्बन्ध रहता है । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - उस अन्तःस्थित चेतन से सम्बन्ध टूटने पर किसी बाह्य सत्ता द्वारा इस का सञ्चालन हो पाना असम्भव है ॥१४॥
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सुन्दर देह हलै चलै, जब लगि चेतनि लाल ।
चेतनि कियौ प्रयान जब, रूसि रहै ततकाल ॥१५॥
इस देह में तभी तक सञ्चालन क्रिया उचित ढंग से होती रहती है, जब तक इस में सब का प्रिय लाल(लाड़ला) बैठा हुआ है । उस चेतन के हटते ही इस देह की हस्त, पाद आदि सभी इन्द्रियाँ तत्काल रूठ कर अपना कार्य बन्द कर देती हैं ॥१५॥
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चम्बक सत्ता कर जथा, लोहा नृत्य कराइ ।
सुन्दर चम्बक दूरि ह्वै, चञ्चलता मिटि जाइ ॥१६॥
श्रीसुन्दरदासजी अपने कथन को चुम्बक के दृष्टान्त से परिपुष्ट कर रहे हैं - जैसे (जथा = यथा) लोह धातु से निर्मित वस्तु चुम्बक के सहारे से लोक में नाचती कुदती हैं; और उस चुम्बक के दूर हटते ही उन की चलन क्रियाएँ रुक जाती है । वैसे ही इस देह की समस्त क्रियाओं का चलन(चञ्चलता) भी, चेतन के दूर होते ही, निवृत्त हो जाता है ॥१६॥
(क्रमशः)

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