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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१०. तृष्णा को अंग ५/८*
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बहुरि पृथीपति होन की, इन्द्र ब्रह्म शिव वोक ।
कब देहैं करतार ये, सुन्दर तीनौं लोक ॥५॥
पुनः उस लोभी पुरुष की पृथ्वीपति(चक्रवर्ती राजा) होने की इच्छा होती है । इस के बाद उसे इन्द्रलोक, ब्रह्मलोक एवं शिवलोक की चाह(= वोक) सताती है । वह धन का अधिपति होना चाहता है । और वह भगवान् से दिन रात यही आशा करता है कि वे उसे कब तीनों लोकों का अधिपति बना देंगे ॥५॥
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तृष्णा बहै तरंगिनी, तरल तरी नहि जाइ ।
सुन्दर तीक्षण धार मैं, केते दिये बहाइ ॥६॥
यह तृष्णा वह गम्भीर नदी है जो छोटी मोटी नौका से पार नहीं की जा सकती । तथा इस बात की कोई गणना ही नहीं है कि उस की इस तीक्ष्ण धार में कितने प्राणी बह गये हैं ! ॥६॥
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सुन्दर तृष्णा पकरि कैं, करम करावै कोरि ।
पूरी होइ न पापिनी, भटकावै चहुं वोरि ॥७॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - यह तृष्णा उन दया के पात्र लोगों को अपने जाल में फंसा कर उन से क्रूर से क्रूर कर्म कराती रहती है । फिर भी इस पापिन को सन्तोष नहीं होता । इतना होने पर भी यह उन को इधर उधर चारों ओर धन के लोभ में भटकाती रहती है ॥७॥
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सुन्दर तृष्णा कारनै, जाइ समुद्र हि बीच ।
फटै जहाज अचानचक, होइ अबंछी मीच ॥८॥
वे लोग तृष्णा के जाल में फंस कर(धन के लोभ में आ कर) गहरे समुद्र के मध्य पहुँच जाते हैं । वहाँ उनका जहाज अचानक(अकस्मात्) समुद्र में डूब जाता है और उन लोगों की वहाँ अनचाही(अबंछी) मृत्यु हो जाती है ॥८॥
(क्रमशः)

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