*#daduji*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
.
८ आचार्य निर्भयरामजी
.
भिवानी चातुर्मास
वि. सं. १८७० में रामत करते - करते भिवानी पधारे और इस वर्ष का चातुर्मास भिवानी के सेवक पतरामजी के यहां का निश्चय हुआ पतरामजी सिद्ध संत कान्हडदासजी के शिष्य थे । दादूजी के परम भक्त थे । आसपास के प्रदेश के ख्याति प्राप्त सेठ थे ।
.
इनके यहां चातुर्मास महाराज का होगा, यह सुनकर संत भी इधर उधर से सत्संग के लिये बहुत आ गये थे । तथा सत्संग करने वाले भक्तों के लिये भी पतरामजी ने अच्छा प्रबन्ध कर दिया था । कोई भी सत्संगी बाहर से आते थे वे अपनी इच्छानुसार सत्संग करते थे । उनके भोजन आदि का सब प्रबन्ध पतरामजी ने कर रक्खा था ।
.
अत: सद्गृहस्थ भी इच्छानुसार सत्संग का लाभ प्राप्त करते थे । सत्संग में प्रात: श्री दादूवाणी का प्रवचन होता था । मध्य दिन में उपनिषद् आदि के प्रवचन चलते थे और भी संतों के खुले उपदेश भी होते ही रहते थे । सायंकाल आरती, अष्टक, भजन,नाम संकीर्तन, जागरण आदि सत्संग चलता ही रहता था ।
.
नगर के लोग सत्संग में बहुत भाग लेते थे । संतों की सेवा भी नगर के लोगों ने श्लाघनीय करी थी । सत्संग समाप्ति पर पतरामजी ने आचार्य निर्भयरामजी महाराज की भेंट रुप में १ मोहर और १०००) रु. किये । सब संतों को वस्त्रादि आवश्यक वस्तुयें भी दी थी । बहुत ही अच्छा चातुर्मास हुआ था ।
.
अलवर पधारना
वि. सं. १८७१ में आचार्य निर्भयरामजी महाराज अलवर पधारे थे । आषाढ शुक्ला ३ को अलवर पहुँचे थे । अलवर नरेश वक्तावर सिंह को सूचना मिलते ही वे आचार्य जी की पेशवाई के लिये राजकीय सब लवाजमा सवारी आदि लेकर आये । दर्शन कर १ मोहर ५) रु. भेंटकर सत्यराम बोलकर प्रणाम किया फिर जहां ठहरना था वहां पहुँचा कर फिर १ मोहर और ५) रु. भेंट किये ।
.
फिर अलवर नरेश ने भोजन आदि का प्रबन्ध भी वहां ही करा दिया था । दादूवाणी का प्रवचन होता था । राजा तथा राज परिवार व धार्मिक जनता सत्संग, संत दर्शन, संत - सेवा आदि का लाभ प्राप्त कर रहे थे । संतों का साधन - भजन निर्विध्न हो रहा था ।
.
जीवनदास जी को बचाना
अलवर के एक बाग में एक सुन्दर भवन बनाया गया था । उसे देखने बहुत लोग जाते थे । आचार्य निर्भयरामजी के प्रिय शिष्य और उत्तराधिकारी जीवनदासजी भी उसे देखना चाहते थे । एक दिन जीवनदासजी उस भवन को देखने जाने लगे तब आचार्य निर्भयरामजी ने उनको रोक दिया ।
.
फिर जीवनदास जी ने कहा -
आज अवकाश है देख आता हूँ । आचार्य जी ने फिर भी रोक दिया । फिर भी जीवनदासजी का मन देखा, तब कहा - आज तो सर्वथा ही नहीं जाना । तब वे रुक गये । किन्तु उसी दिन और जिस समय जीवनदासजी जाकर उस भवन में प्रवेश करते उसी समय वह भवन गिर गया ।
.
उस समय में जो मानव उस भवन में थे वे मर गये और निर्भयरामजी महाराज ने जीवनदासजी को रोक कर उनकी जान बचा ली । इससे सूचित होता है कि निर्भयरामजी महाराज भविष्य में होने वाली घटना को भी पहले ही जान जाते थे । फिर वे जीवनदासजी ही निर्भयरामजी के पीछे आचार्य पद पर विराजे थे ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें