गुरुवार, 18 दिसंबर 2025

*१४. अथ दुष्ट को अंग १/४*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१४. अथ दुष्ट को अंग १/४*
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सुन्दर बातें दुष्ट की, कहिये कहा बखांनि । 
कहें बिना नहिं जानियें, जिती दुष्ट की बांनि ॥१॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - दुष्ट पुरुष के कुकृत्यों का वर्णन कहाँ तक किया जाय ! परन्तु बताये बिना कोई(सरल पुरुष) उसके स्वभाव से परिचित भी कैसे होगा ! ॥१॥
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अपने दोष न देखई, पर कै औगुन लेत । 
ऐसौ दुष्ट सुभाव है, जन सुन्दर कहि देत ॥२॥ 
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - दुष्ट पुरुष का ऐसा स्वभाव होता है कि वह दूसरों के ही दोष देखता है, अपने दोष नहीं देखता । दुष्ट का यह स्वभाव ही होता है ॥२॥
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सुन्दर दुष्ट स्वभाव है, औगुन देखै आइ । 
जैसैं कीरी महल मैं, छिद्र ताकती जाइ ॥३॥
दुष्ट पुरुष का यह भी स्वभाव होता है कि वह दूसरों के दोष ही देखता है, उन के गुण नहीं देखता । जैसे कीड़ी किसी विशाल, सुन्दर महल में जा कर भी उस में छिद्र ही खोजती रहती है ॥३॥
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सूझत नांहिं न दुष्ट कौं, पांव तरै की आगि । 
औरन के सिर पर कहै, सुन्दर वासौं भागि ॥४॥ 
दुष्ट पुरुष को अपने पैरों के नीचे जलती हुई अग्नि नहीं दिखायी देती; हाँ, दूसरों के शिर पर जलती हुई अग्नि को देख कर चिल्लाता है - 'अरे इस अग्नि से बचो' ॥४॥
(क्रमशः) 

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