रविवार, 28 दिसंबर 2025

*१५. मन कौ अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. मन कौ अंग १३/१६*
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सुन्दर यहु मन चोरटा, नाखै ताला तोरि । 
तकै पराये द्रब्य कौं, कब ल्याऊं घर फोरि ॥१३॥
हमारा यह मन बहुत बड़ा चौर भी है, अतः यह मजबूत से मजबूत ताले को सरलता से तोड़ देता है । क्योंकि पराये धन के विषय में इसकी यही वृत्ति बनी रहती है कि कब इसका स्वामी यत् किञ्चित् भी असावधान हो तो मैं इस का धन, इस के घर में से, उठा लाऊँ ॥१३॥
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सुन्दर यहु मन जार है, तकै पराई नारि । 
अपनी टेक तजै नहीं, भावै गर्दन मारि ॥१४॥
हमारा यह मन इतना अधिक कामी(व्यभिचारी) है कि इस की कुदृष्टि परायी स्त्रियों पर इस सीमा तक लगी रहती है कि यह अपने प्राणों(हत्या) की भी परवाह न कर; उनके साथ समागम के लिये सदा सन्नद्ध रहता है ॥१४॥
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सुन्दर मन बटपार है, घालै पर की घात । 
हाथ परे छोडै नहीं, लूटि खोसि ले जात ॥१५॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हमारा यह मन बहुत बड़ा लुटेरा(बटपार) है यह प्रति क्षण यही सोचता रहता है कि कब कोई असावधान या एकाकी असहाय मिले कि उस का सब धन लूट लाऊँ । यह निर्दय, अवसर पड़ने पर, उसके पास कांनी कौड़ी भी नहीं छोड़ता, अपितु सब कुछ लूट लेता है ॥१५॥
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सुन्दर मन गांठी कटौ, डारै गर मैं पासि । 
बुरौ करत डरपै नहीं, महा पाप की रासि ॥१६॥
हमारा मन इतना ढीठ और निडर गठकटा(जेबकतरा) है कि यह ऐसा करते समय अपने प्राणों की भी परवाह नहीं करता । यह इतना बड़ा पापी है कि इसे यह पाप करते समय, कुछ भी डर नहीं लगता ॥१६॥
(क्रमशः)  

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