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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २३/२५*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, दूधाधारी होड़ ।
पाषंड करहिं अनेक बिधि, खांहिं सकल रस गोइ ॥२३॥
पेट के लिये साधुओं का पाषण्ड : हे प्रभो ! मैं देखता हूँ कि इस संसार में अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई दूधाधारी साधक बना फिरता है और वैसा करते हुए वह लोक में पाषण्ड रच कर उपलब्ध सभी भोगों का उपभोग गुप्त रूप से करता रहता है ॥२३॥
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सुंदर प्रभुजी पेट कौ, साधै जाइ मसान ।
यंत्र मंत्र आराध करि, भरहिं पेट अज्ञान ॥२४॥
इसी प्रकार, प्रभु जी ! कोई दूसरा अज्ञानी साधक श्मशानसिद्धि का पाषण्ड रचता हुआ यन्त्र, मन्त्र की आराधना के व्याज से अपनी उदरपूर्ति के लिये नयी नयी युक्तियाँ निकालता रहता है ॥२४॥
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सुंदर प्रभुजी सब कह्यौ, तुम आगै दुख रोइ ।
पेट बिना ही पेट करि, दीनी खलक बिगोइ ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहने को अंग ॥११॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - हे प्रभो ! इस प्रकार प्राणियों को पेट के कारण होने वाले सभी कष्ट आपके सामने संक्षेप में प्रस्तुत कर दिये हैं । मुझे ऐसा लगता है कि आपने यह पेट बिना किसी प्रयोजन के लगा कर इस संसार को नष्ट ही कर दिया ! ॥२५॥
इति अधीर्य उरांहना का अंग सम्पन्न ॥११॥
(क्रमशः)

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