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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*११. अधीर्य उरांहने को अंग २०/२२*
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सुन्दर प्रभुजी पेट कौं, बहु बिधि करहिं उपाइ ।
कौंन लगाई व्याधि तुम, पीसत पोवत जाइ ॥२०॥
उदरपूर्ति हेतु नवीन उपायों की खोज : हे प्रभो ! आज सभी प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये कोई न कोई नया उपाय करते रहते हैं । आप ने इन सब को यह कैसी व्याधि(रोग) लगा दी कि इन का समस्त जन्म भोजन बनाने(पीसने, पोने में) ही व्यतीत हो जाता है ॥२०॥
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सुन्दर प्रभुजी सबनि कौं, पेट भरन की चिंत ।
कीरी कन ढूंढत फिरै, मांखी रस लै जंत ॥२१॥
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - सभी प्राणियों को अपने पेट भरने की ही चिन्ता बनी रहती है । इन में कीड़ी जैसा लघु कीट अपने लिये कन(भोजन का सूक्ष्म अंश) खोजता रहता है तो मधुमक्खी जैसा प्राणी अपनी उदरपूर्ति के लिये फूलों का रस खोजता रहता है ॥२१॥
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सुन्दर प्रभुजी पेट बसि, देवी देव अपार ।
दोष लगावै और कौं, चाहै एक अहार ॥२२॥
पेट के लिये देवताओं की चतुरता : हे प्रभो ! पृथ्वी के प्राणियों की ही बात क्यों की जाय, मैं समझता हूँ, स्वर्ग के अनन्त देवताओं की भी यही दशा है । वे तो यह भी चतुरता करते हैं कि वे उस भोजन के लिये दोष दूसरों के शिर डालकर वह प्राप्त भोजन(हवि) स्वयं खा जाते हैं ! ॥२२॥
(क्रमशः)

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