गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

*१५. अथ मन कौ अंग १/४*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१५. अथ मन कौ अंग १/४* 
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मन कौं राखत हटकि करि, सटकि चहूं दिसि जाइ । 
सुंदर लटकि रु लालची, गटकि बिषै फल खाइ ॥१॥
महाराज कहते हैं - साधक को अपने चित्त की बाह्य वृत्तियों का बल(हठ) पूर्वक निरोध करना चाहिये; क्योंकि यह, अल्पमात्र असावधानी होते ही, तत्काल बाह्य-वृत्ति हो जाता है । यह विषयों का ऐसा अतिशय अनुरागी एवं लोभी है कि यह उन को देखते ही झपट कर उनका उपभोग करने को दौड़ता है ॥१॥
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झटकि तार कौं तौरि दे, भटकत सांझ रु भोर । 
पटकि सीस सुन्दर कहै, फटकि जाइ ज्यौं चोर ॥२॥
अतः साधक को, ज्ञात होते ही, उसका वह विषयभोग सूत्र तत्काल काट देना चाहिये, अन्यथा यह जब तब, सन्ध्या या प्रातःकाल, भटकता हुआ उसमें उलझा ही रहेगा । श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं -तथा यह अपना सिर पटकता हुआ(उन में अनुरक्त होता हुआ) चोरों के समान तत्काल उनके पास पहुँच जायगा ॥२॥
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पल ही मैं मरि जात है, पल मैं जीवत सोइ । 
सुन्दर पारा मूरछित, बहुरि सजीवनि होइ ॥३॥
इस मन का पारद के समान ऐसा स्वभाव है कि यह क्षणमात्र में ही किसी के प्रति अनुरक्त(जीवित) हो जाता है तो दूसरे ही क्षण में उनसे(मृत) विरक्त भी हो जाता है ॥३॥
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जातें कबहु न जानिये, यौं मन नीकसि जाइ । 
आवत कछु न देखिये, सुन्दर किसी बलाइ ॥४॥
इन मन को शुभ सङ्कल्पों से दूर हटने में कोई विलम्ब नहीं लगता, न यह अशुभ सङ्कल्पों से मिलने में कोई विलम्ब करता है । इसके समान मनुष्य के लिये अन्य कोई घोर सङ्कटदायी वस्तु(बलाय) नहीं है ॥४॥
(क्रमशः) 

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