शनिवार, 13 दिसंबर 2025

*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १३/१६*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*१३. देह मलिनता गर्ब प्रहार कौ अंग १३/१६*
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सुन्दर ब्राह्मन आदि कौ, ता महिं फेर न कोइ । 
सूद्र देह सौं मिलि रह्यौ, क्यौं पवित्र अब होइ ॥१३॥ 
ब्राह्मण आदि जातिभ्रम के कारण भी तुमको इस शुद्धि के जञ्जाल में नहीं फंसना चाहिये; क्योंकि जब तुम्हारा इस निरन्तर अशुद्ध देहरूप शूद्र से ही संसर्ग है तो तुम को ब्राह्मण की वह तथाकथित पवित्रता कैसे मिल पायगी ! ॥१३॥
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सुन्दर गर्ब कहा करै, देह महा दुर्गंध । 
ता महिं तूं फूल्यौ फिरै, संमुझि देखि सठ अंध ॥१४॥
महाराज श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - रे मानव ! तूं अपनी इस देह का क्या अभिमान कर रहा है ! यह तो अतिशय दुर्गन्धयुक्त है । तूं इस पर वृथाभिमान करता हुआ क्यों गर्वोन्मत्त हो रहा है ! अरे मूर्ख ! तूं मेरे इस हितोपदेश को भले प्रकार से समझ ले ॥१४॥
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सुन्दर क्यौं टेढौ चलै, बात कहै किन मोहि । 
महा मलीन शरीर यह, लाज न उपजै तोहि ॥१५॥
तूं अपने इस महामलिन शरीर पर वृथाभिमान करता हुआ समाज में गर्वपूर्वक अकड़ कर चल रहा है; किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करता ! अरे मूर्ख ! तुझको अपने इस हीन कृत्य पर लज्जा भी नहीं आती ॥१५॥
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सुन्दर देखै आरसी, टेढी नाखै पाग । 
बैठौ आइ करंक पर, अति गति फूल्यौ काग ॥१६॥
तूं अपने इस मलिन शरीर के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध होकर शीशे में देखते हुए टेढी पगड़ी बांधता हुआ इस पर उसी प्रकार गर्व प्रकट कर रहा है, जैसे श्मशान में किसी कङ्काल पर बैठा हुआ कोई कौआ किया करता है ॥१६॥
(क्रमशः)  

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