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*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥*
*॥ दादूराम~सत्यराम ॥*
*"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =*
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१० आचार्य दिलेराम जी
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श्री दादूधाम का संवर्धन -
आचार्य दिलेरामजी महाराज जब से आचार्य पद पर विराजे थे तब से ही धार्मिक जनता में भ्रमण करते हुये श्रीदादूवाणी का प्रचार करते रहे थे । उन्होंने अपने उपदेशों द्वारा धर्म प्राण जनता से बहुत सम्मान पाया था ।
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वैसे आप बहुत उच्च कोटि के भजनानन्दी संत थे फिर भी आप इतने मिलनसार संत थे कि प्रत्येक के दु:ख की कहानी सुनकर उसे दु:ख निवृति का उपाय बता देते थे आपने अपने उपदेशों से असंख्य से असंख्य प्राणियों को भगवद् भक्ति में लगाया था । आप भ्रमण करते हुये अपने उपदेशों द्वारा जनता को मोह निद्रा से जगाते ही रहते थे ।
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आपकी यात्रा के समय जिन राजा महाराजाओं तथा विशिष्ट सज्जनों से आपका संपर्क हो जाता था, वे तो फिर आपका दर्शन सत्संग सदा ही चाहते रहते थे । आपके उपदेश का अच्छा प्रभाव पडता था । इसी कारण आपके द्वारा नारयणा दादूधाम का अच्छा संवर्धन हुआ था और आपके समय दादूपंथी समाज भी उन्नति की ओर बढ रहा था ।
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समाज में अच्छे - अच्छे संत साधक और भक्त अपने साधनों में बहुत उन्नति कर रहे थे । उक्त प्रकार आचार्य दिलेरामजी महाराज २० वर्ष २ मास ९ दिन आचार्य गद्दी पर विराज कर फाल्गुण कृष्णा २ रविवार वि. सं. १८९७ में ब्रह्मलीन हुये थे । आपकी समाधि रुप स्मारक छत्री नारायणा दादूधाम में ही है ।
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समकालीन संतों की श्रद्धा -
दोहा - जो निर्भय देखा नहीं, सौ दलपति देखे आय ।
स्वामी निर्भयराम की, देसी प्यास मिटाय ॥१॥
दलपति दिल दरियाव की, मोरी दीन्ही खोल ।
ज्ञानामृत बांटा अधिक, उसका मोल न तोल ॥२॥
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गुण गाथा -
वर्धक दादूधाम के, दिलेराम महाराज ।
हुये प्रकट में दीखते, आज उन्हों के काज ॥१॥
दादू वाणी ज्ञान का, कीन्हा अधिक प्रचार ।
घूम घूम कर देश में, सब दिशि बारम्बार ॥२॥
सदा सरलता साम्यता, रखते थे मन मांहिं ।
दिलेराम दिल में लखी, भेद भावना नांहिं ॥३॥
संत जनों से सदा ही, रखते थे अति प्रेम ।
शरणागत का स्नेह से, करते योग रु क्षेम ॥४॥
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मनहर -
धन्य दिलेराम स्वामी दिल के अगाध अति,
दादू पाट बैठकर जगको जगाया था ।
राणा राजा राव रंक रंजित किये थे सब,
समभाव रखकर ज्ञानामृत पाया था ॥
संतन की रीति रख नीति से किये थे काम,
‘नारायणा’ दादूधाम सुयश बढाया था ।
जोउ भेंट आती सोउ सेवा में लगाई सब,
दिलेराम ऐश्वर्य से लेश न लुभाया था ॥५॥
इति श्री अष्टम अध्याय समाप्त: ८
(क्रमशः)

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