रविवार, 8 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(५३-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*अब "तिही तत्त" में समाने की विधि का वर्णन*

*दादू रचि मचि लागे नाम सौं, राते माते होइ ।*
*देखेंगे दीदार को, सुख पावेंगे सोइ ॥५३॥* 
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासु ! जो गुरु-वचन और शास्त्र-वचन में श्रद्धा रखने वाले पुरुष प्रीति के सहित पूर्ण अनुराग युक्त होकर राम-नाम के स्मरण में एकाग्र रहते हैं, वे परमेश्वर के प्रेम में विह्वल होकर मतवाले बन जाते हैं । उनको अपने शरीर का अध्यास भी नहीं रहता । ऐसे उत्तम जिज्ञासु, परमेश्वर का साक्षात्कार करके मोक्ष को प्राप्त होंगे ॥५३॥ 
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*चेतावनी*
*दादू सांई सेवैं सब भले, बुरा न कहिये कोइ ।* 
*सारों मांही सो बुरा, जिस घटि नाम न होइ ॥५४॥* 
हे जिज्ञासुओ ! जो कोई भक्त जिस किसी भी नाम से प्रभु की भक्ति करता है, वह धन्य है । प्रभु भक्तों में कोई भी बुरा नहीं है । जगत् के सम्पूर्ण अधम प्राणियों में अधम से अधम तो वह है, जिसके हृदय में भगवत् का नाम नहीं है । इसलिए निरन्तर दत्तचित्त होकर परमेश्वर के नाम का चिंतन करो ॥५४॥ 
दृष्टान्त - एक समय संत मोहम्मद पैगम्बर की स्त्री आशा बोली :- स्वामी, उस स्त्री के घर में एक पुरुष आता है । मोहम्मद बोले :- ऐसा मत कहो, निन्दा में बड़ा दोष है । हे प्रिय ! दो स्त्रियों ने निन्दा की थी, उनके मुँह से रक्त की कै हुई । तुम भी थूको । आशा के मुख से खून का थूक गिरा । उस दिन से फिर आशा ने कभी निन्दा नहीं की ।
(क्रमशः)

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