*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= स्मरण का अंग - २ =*
.
*दादू सब जग विष भर्या, निर्विष बिरला कोइ ।*
*सोई निर्विष होइगा, जाके नाम निरंजन होइ ॥६३॥*
हे जिज्ञासुओ ! सम्पूर्ण संसार में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर व इर्ष्या आदि विषय-विकार ही व्याप्त हो रहे हैं । कोई संत पुरुष ही इन सब विषय विकारों से मुक्त है । जिससे हृदय में निरंजन निराकार प्रभु का नाम स्मरण है, वही इन विषय-विकारों से मुक्त होता है ॥६३॥
दृष्टान्त - एक राजा और उनकी रानी दोनों महात्मा की रोज कथा सुनने जाया करते थे । कथा में प्रसंग आया कि स्मरण करने वाले पुरुष के साथ जो रहता है, वह भी कल्याण को प्राप्त होता है । रात्रि को दोनों स्त्री-पुरुष विचार करने लगे कि अपनी लड़की शादी योग्य हो गई है, किसी भक्त के साथ इसकी शादी करें, तो अति उत्तम रहे । रानी ने कहा :- महाराज, आप मालूम कराओ कोई भक्त मिल जाये तो उसी के साथ लड़की की शादी कर दें । राजा ने कहा - ठीक है, ऐसा ही करूँगा ।
उसी दिन रात को एक चोर राजा के महलों में चोरी करने आया था । उसने यह बात सुनी और मन में विचार किया कि तूं क्यों चोरी करता फिरता है ? चल यमुना के किनारे जंगल में भक्त बन कर बैठ जा और राम राम जप । जब राजा और रानी आवेंगे, तभी मैं अपनी आँखें खोलूंगा । वह चोर ऐसा विचार करके जंगल में जा बैठा । राहगीर लोगों ने उसे बैठा देखा तो शहर में शोर मचा दिया कि बड़ा भारी महात्मा अमुक जगह बैठा है । दुनियाँ कोई कुछ चढ़ाती है और कोई कुछ ले जाती है, परन्तु वह आँख नहीं खोलता । यह बात राजा के दरबार में भी पहुँच गई । राजा ने रानी को बताया कि भक्त तो, जैसा हम चाहते थे वैसा ही जंगल में बैठा है । चलो, दर्शन करने चलें । दोनों ने जब आकर दर्शन पाये तो नौकर को इशारा किया कि लड़की को ले आओ । लड़की आई और उसके सामने खड़ी हो गई । राजा और रानी ने कहा कि आप हमारी लड़की को सेवा के लिए अंगीकार कर लेवें । तब उसने आँखें खोली और लड़की को देखा और फिर आँखें बन्द कर लीं और बोला- अब वह नहीं है, अगर मैं इस प्रकार की भावना लेकर बैठता तो, परमात्मा भी प्रकट होकर मुझ को दर्शन दे देते । मुझे यह पता नहीं था कि प्रभु के नाम-स्मरण से जो मांगे, वही मिल जाता है । सच्चा भक्त होकर प्रभु के नाम स्मरण से वह मुक्त हो गया ।
दृष्टान्त - बादशाह की जमादारिन जनाने महलों में रोज झाडू देने जाती थी । एक रोज जमादारिन की तबीयत खराब होने से अपने पति से बोली :- तुम झाडू दे आओ । जब वह झाडू देने महलों में गया और झाडू निकालने लगा, शहजादी अचानक कमरे से बाहर आई । उसके रूप को देखकर जमादार मोहित हो गया । जैसे-तैसे झाडू तो निकाली, पर घर पर आकर मुर्छित होकर पड़ गया । जमादारिन ने पति को मुर्छित देखा और चेत कराया । बोली :- क्या हो गया ? जमादार बोला :- मुझे शहजादी मिले तो मेरा जीवन हो । जमादारिन बोली :- चुप, बादशाह सुन लेगा तो बच्चों सहित तुझ को फांसी पर लटका देगा । जमादार बोला :- मैंने पहले ही कहा है, मेरी मौत आ गई, शहजादी नहीं मिलेगी तो मरुँगा । तब जमादारिन विचार करके शहजादी के पास गई और रोने लगी । शहजादी ने पूछा- क्या बात है ? कैसे रोती है ? जमादारिन ने उपरोक्त वृत्तान्त कह सुनाया । शहजादी हँसी और मन में सोचा, कहाँ जमादार और कहाँ मैं ? फिर सोचा, जमादार मर जाएगा तो हमारी जमादारिन विधवा हो जाएगी । यह सोचकर वह जमादारिन को बोली :- उसको बोल दे कि साधु बनकर जंगल में जा बैठ । जब तक शहजादी न आवे, तब तक आँखें नहीं खोलना और राम-राम जपना । तब जमादारिन ने पति से जाकर बोल दिया । फिर वह साधु-भेष बना कर जंगल में जा बैठा । आने-जाने वाले ने देखा और विचार किया कि यह तो भारी महात्मा हैं । यह बात बादशाह के कानों में भी पहुँच गई । फिर वह भी दर्शन करके आया और शहजादी को जाकर बोला :- एक बड़े भारी महात्मा अमुक जगह बैठ कर तप कर रहे हैं । शहजादी बोली, हमको भी दर्शन कराओ । बादशाह बोले :- कल आप सवारी से जाकर दर्शन करना । दूसरे रोज शहजादी सवारी में बैठ कर चली और उसके सामने जाकर खड़ी हो गई । उसने शहजादी को देखकर फिर आँखें बन्द कर लीं । शहजादी बोली :- आँखें क्यों बन्द कर लीं ? वह बोला :- जो तुम्हें चाहता था, वह अब नहीं रहा, फिर वह फूट-फूट कर रोने लगा और बोला :- मुझे यह पता नहीं था कि प्रभु-चिंतन करने वाला जो कुछ मांगे, वही उसे मिल जाता है । आज मैं चाहता तो तुम्हारी तरह भगवान् भी मेरे सामने आ जाते ।
"घर घर बगड़ बुहारतो, तोउ न भरतो पेट ।
अब तो राम प्रताप से, भूप चढावें भेंट ॥"
यह कहकर वह सच्चा साधु बन गया ।
.
*दादू निर्विष नाम सौं, तन मन सहजैं होइ ।*
*राम नीरोगा करेगा, दूजा नांही कोइ ॥६४॥*
परमेश्वर के नाम स्मरण से ही यह तन और मन विषयों से मुक्त होकर सहजावस्था को प्राप्त होता है । केवल राम-नाम द्वारा ही यह मन सम्पूर्ण संसार के विषय-विकारों से मुक्त होता है, इसके अतिरिक्त मन को पवित्र करने के लिए और कोई भी उपाय नहीं है ॥६४॥
.
*ब्रह्म भक्ति जब उपजै, तब माया भक्ति बिलाइ ।*
*दादू निर्मल मल गया, ज्यूँ रवि तिमिर नसाइ ॥६५॥*
जैसे सूर्य उदय होने के पश्चात् रात्रि का अन्धकार स्वत: ही समाप्त हो जाता है । इसी प्रकार मन में ब्रह्म की कहिए, परमात्मा की सच्ची पराभक्ति उत्पन्न होते ही "माया की भक्ति" कहिए, विषय-विकार आदिकों में आसक्ति और मोह-जाल सम्पूर्ण नष्ट हो जाता है और अन्त:करण निर्वासनिक होकर पवित्र हो जाता है । ब्रह्म से भिन्न अन्य देवी-देवताओं की भक्ति से, तीर्थ-व्रत आदि के करने से, कदापि अन्त: करण का अज्ञान नष्ट नहीं होता है । दृष्टान्त में जैसे दीपक, तारे आदि के उदय होने से रात्रि रूप अन्धकार नहीं जाता है, परन्तु सूर्य के उदय होने से तत्काल अन्धेरा निवृत्त हो जाता है । उसी तरह ब्रह्म-भक्ति प्रकट होने से सम्पूर्ण मायिक-प्रपंच नष्ट हो जाते हैं ॥ ६५ ॥
लक्ष्मी विष्णु भक्त पै, ले गई भेंट बनाइ ।
वै अचाह ताड़त भये, आई मुँह लपकाइ ॥
कनक कटोरा दिखाई करि, सेवक लिए लुभाइ ।
धक्का दिवाया विष्णु कै, आपन रही छिपाइ ॥
दृष्टान्त - एक रोज भगवान् विष्णु और लक्ष्मीजी दोनों की विनोद-वार्ता होने लगी । लक्ष्मी बोली :- मेरे भक्त ठीक हैं । भगवान बोले :- मेरे भक्त निर्वासनिक हैं, वे उत्तम हैं । लक्ष्मीजी बोली :- आप के भक्तों को तो मैं अपने अधीन कर सकती हूँ, परन्तु मेरे भक्तों को आप अधीन नहीं कर सकते हो । भगवान् बोले :- आपके भक्तों को तो हम अपने अधीन कर भी सकते हैं, परन्तु आप हमारे भक्तों को अधीन नहीं कर सकतीं । लक्ष्मीजी बोली :- अमुक नाम का मेरा भक्त है, मृत्यु लोक में । उसके आप जाकर ठहर जाओ । भगवान् बैकुण्ठ-धाम से संत रूप में चले और इस भक्त की दुकान पर पहुँच गये । संत बोले :- भक्तजी, राम-राम ! वह राम-राम नहीं बोले । तब एक नौकर सेठजी को जाकर बोला :- सन्त क्या कह रहे हैं ? उनकी सुनो । सेठ बोले :- क्या कहते हैं ? सन्त बोले :- भाई ! शरीर वृद्ध हो गया, तेरे बाग बगीचे बहुत हैं, हमारे ठहरने को कोई जगह बता दोतो वहाँ ठहर कर राम-राम करते रहें । सेठ बोले :- और कुछ तो नहीं मांगोगे । संत बोले :- नहीं । तो सेठ ने नौकर को कहा :- जाओ वह बगीची बतला दो, जिसकी दीवारें टूटी हुई हैं । संत बोले :- परन्तु फिर तुम निकालोगे तो मैं निकलूँगा नहीं । अपनी इच्छा से चाहे कभी चला जाऊँ । सेठ बोले:- मर जाओगे तो उठवा कर फिकवा देंगे । संत बोले :- ठीक है । फिर संत नौकर के साथ चल पड़े, बगीचे में पहुँचे । सफाई कर आसन लगाकर बैठ गए और माला फेरने लगे । लक्ष्मीजी ने देखा :- मेरे भक्त के यहाँ भगवानने डेरा लगाया है । तब लक्ष्मीजी साधु भेष में चली और भक्त के यहां आकर पहुँची । भक्त ने देखा, जरी की अलफी पहन रखी है, जो हीरों से जड़ी हुई है । बगल में एक झोली जरी की डाल रखी है, उसके भी हीरे जड़े हुए हैं और मोतियों के झूमके लटक रहे हैं । हाथ में एक सोने का करमण्डलु है, उसमें भी हीरे जड़े हुए हैं । गले में हीरे, मोती, लाल और पन्नों की माला पहन रखी है । हाथ में सोने का चिमटा भी नगों से जड़ा हुआ है । एक जरी का दुपट्टा हीरों से जड़ा हुआ अलफी के ऊपर ओढ रखा है । सेठ ऐसा रूप देखकर गद्दी से खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर बोला :- महाराज, गद्दी पर बिराजो, आज्ञा फरमावो । साधु बोले, प्यास लगी है । सेठ ने ठण्डाई बनवा कर मंगवाई । गिलास में देने लगे । साधु ने अपनी झोली से एक सोने का कटोरा निकाला । कहा, इसमें दे दो । ठण्डाई पी और सेठ को कटोरा दे दिया । कटोरा धोकर सेठ साधु को देने लगा । साधु बोले :- हम एक दफा जिसमें खा-पी लेते हैं, फिर उसको वापिस नहीं लेते हैं, उसी को दे देते हैं । तुम्हीं रखो । इस प्रकार साधु ने खान-पान के चार कटोरे दे दिए और फिर बोले :-अब तो भक्त चलेंगे ! तब हाथ जोड़कर सेठ बोला :- महाराज ! ज्यादा नहीं तो अब छ: महीने तो रुक जाओ, हम आपके ही बच्चे हैं, दया करो । साधु बोले :- भाई ! हम एकान्त में तो ठहर सकते हैं, यहाँ नहीं । सेठ ने कार में बैठा कर बड़े-बड़े महल और बगीचे दिखलाए । साधु बोले :- वह किसकी बगीची है ? 'वह आपकी ही है, वहाँ चलो' कार जाकर पहुँची । साधु कार से बाहर आए । सेठ के साथ बगीची में गए तो देखा, वहाँ एक सन्त ठहरे हैं । साधु बोले सेठ से कि यह जगह ठीक है, परन्तु यहाँ तो यह महात्मा रुके हुए हैं । सेठ बोले :- यह सन्त नहीं है, यह पाखण्डी है महाराज ! इसको अभी भगा देते हैं । सेठ बोले :- निकल बगीची से बाहर । संत बोले :- तुमने कल कहा था कि नहीं निकालूँगा, अब हम नहीं निकलते । सेठ ने उनके डंड करमण्डलु बाहर फेंक दिए । धक्के देकर बाहर निकाल दिया । साधु अपना करमण्डलु उठा कर बोले, 'भाई तेरे दुगना हो ।' यह कह कर चल पडे । "महाराज ! अब यहाँ ठहरो ।" नहीं भाई ! हम नहीं ठहरेंगे । तुमने हम को सिद्ध जानकर उस महात्मा को धक्के दिए । कल हमसे बड़ा सिद्ध आ जाएगा, तो तुम हमको भी धक्के देकर निकालोगे, हम नहीं रहते । बगीची के बाहर जा कर गुप्त हो गए । जब सेठ को चेत हुआ, तब बोला :-
सूजा श्याम पधारिया, सरते सब ही काम ।
दुविध्या में दोऊ गए, माया मिली न राम ॥
आगे लक्ष्मी जी और भगवान मिले । भगवान् बोले :- तुम्हारे भक्त के तो हम ठहर गए । हमारे भक्तों के तुम जा भी नहीं सकती । तब बोली :- आपके भक्त बताओ । भगवान् बोले :- उस भक्त के पास चली जावें । लक्ष्मीजी ने अपना स्वरूप महारानी का बनाया । थाल में अनेक प्रकार के व्यंजन लेकर चली । सामने से भक्त बोले :- अरी डाकन, कहाँ आती है ! रुक जा । लक्ष्मीजी :- दर्शन करने आई हूँ । भक्त ने धूणी में से एक जलता डंडा उठाया, एक बाईं तरफ मारा, दूसरा दाहिनी तरफ मारा और बोले :- भाग जा । तब दूर खड़ी होकर लक्ष्मीजी बोलीं :- दुष्ट ! तूं रोटी पर रोटी रख कर नहीं खा पाएगा । भक्त बोले :- हम सवा सेर का एक ही रोट बना लेंगे । लक्ष्मीजी बोलीं :- जा दुष्ट ! तुझे साग-सब्जी नहीं मिलेगी । भक्त बोला :- हम घी चीनी से ही काम चला लेंगे । लक्ष्मीजी बोलीं :- तुझे ओढ़ने को कपड़े नहीं मिलेंगे । भक्त बोले :- "हम धूनी रमा कर ही गुजारा कर लेंगे । चल, बकवास करती है ।" फिर लक्ष्मी जी श्राप देकर चल पडीं । भगवान् विष्णु के पास पहुँची । भगवान् हँस रहे थे । "कहो लक्ष्मी जी, क्या हुआ ?" लक्ष्मी जी बोलीं :- जिन पर आपका हाथ है, वह भक्त ही मेरी छाती पर पाँव रख कर आपको प्राप्त हो जाते हैं । आपको और आपके भक्तों को धन्य है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें