*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*मनहर भाँवरि*
*दादू विषय विकार सौं, जब लग मन राता ।*
*तब लग चित्त न आवई, त्रिभुवनपति दाता ॥ ६६ ॥*
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुजनों ! जैसे किसी चींटी के मुख में नमक की कंकरी होवे और वह मिश्री की कंकरी को भी देख कर खाने को ललचाती है । परन्तु अज्ञानतावश जब तक वह चींटी नमक की कंकरी को नहीं त्यागती है, तब तक मिश्री का रसास्वादन कैसे कर सकती है ? इसी प्रकार सतगुरु उपदेश करते हैं कि जब तक यह मन विषय और विकारों में संलग्न रहता है, तब तक तीनों लोकों के पति जो परमेश्वर हैं, उनके पवित्र नाम-स्मरण में यह मन एकाग्र नहीं हो सकता । इसलिए अपने मन को उन सब से हटा कर अपने अन्त:करण में ही परमेश्वर के स्मरण में संलग्न करके परमात्मा स्वरूप बनाओ ॥ ६६ ॥
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*विरह जिज्ञासा*
*दादू क्या जाणों कब होइगा, हरि सुमिरण इक तार ।*
*क्या जाणों कब छाड़ि है, यहु मन विषै विकार ॥ ६७ ॥*
हे जिज्ञासुजनों ! तुम्हारा यह चंचल मन, न मालूम कब विषय-विकारों को त्यागेगा और हरि स्मरण में कब एकरस होगा ? क्योंकि प्रथम तो मनुष्य-जीवन ही दुर्लभ है और मनुष्य-जन्म मिला, तो यह मन्द-बुद्धि मन विषयों में आसक्त हो रहा है, ये विषय अनन्त हैं । इसलिए विषयों से छुटकारा पाने की इसकी कोई भी आशा नहीं है ॥ ६७ ॥
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*है सो सुमिरण होत नहीं, नहीं सो कीजै काम ।*
*दादू यहु तन यूँ गया, क्यूँ कर पइये राम ॥ ६८ ॥*
हे जिज्ञासुजनों ! "है" कहिए परमेश्वर "सत् चित् आनन्द" "अस्ति भांति प्रिय रूप" है । उसका तो स्मरण करते नहीं और असत्य मायावी पदार्थों के भोगों की काम-वासना करते हैं । इस प्रकार मुक्ति साधन स्वरूप अमूल्य यह मनुष्य देह व्यर्थ ही विषय-वासनाओं में चला गया तो पुन: आत्म-साक्षात्कार कर परमात्म-प्राप्ति का सुअवसर कहाँ मिलेगा? अत: मन को सांसारिक विषयों से हटाकर प्रभु स्मरण में ही लगाकर मानव-जीवन को सार्थक करो ॥ ६८ ॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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