मंगलवार, 10 जुलाई 2012

= स्मरण का अँग २ =(५७-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= स्मरण का अंग - २ =*
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*दादू नीकी बरियां आय कर, राम जप लीन्हां ।*
*आत्म साधन सोधि कर, कारज भल कीन्हां ॥ ५७ ॥*
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुओ ! प्रथम तो मनुष्य का शरीर प्राप्त होना, यह एक बड़ा सुन्दर अवसर है, क्योंकि मनुष्य शरीर में राम के भजन का पूर्ण लाभ प्राप्त हो जाता है । इसलिए जो जिज्ञासु जिस समय में, जिस जाति में, जिस कुल में, परमेश्वर का स्मरण करता है, वह युग समय, वह जाति और कुल श्रेष्ठ है, क्योंकि जिस जिज्ञासु ने अपने आत्मा जीव के कल्याण के लिए नाम के स्मरण रूप साधन को दृढ़ धारण कर लिया है, उसने समय अनुसार सर्वश्रेष्ठ कार्य कर लिया है । अभिप्राय यह है कि जैसे किसी जौहरी को व्यापार में जिस समय पूर्ण लाभ प्राप्त होता हो, उसको प्रात: काल या मध्याह्नकाल या सायंकाल, उसके लिए वही अवसर श्रेष्ठ है, जिसमें उसने लाभ प्राप्त कर लिया है । वैसे ही जो समय प्रभु-चिन्तन में लगता है, उसके लिए वही अमूल्य समय धन्य है ॥ ५७ ॥ 
कोउ जन स्वामी से कही, और युग न अवतार । 
नीको युग सो जानिये, दर्शन दे करतार ॥ 
दृष्टांत - ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज से एक भक्त ने आकर नमस्कार किया और पूछने लगा कि हे गुरुदेव ! आपका अवतार तो सतयुग में होना चाहिए था, इस भयंकर कलिकाल में क्यों हुआ ? सतगुरु बोले :- भाई ! वही युग श्रेष्ठ है, जिसमें भगवान् के दर्शन हो जावे, क्योंकि उसके लिए वही समय सतयुग है । और सतयुग में जन्म होवे या त्रेता व द्वापर में होवे और प्रभु दर्शन प्राप्त नहीं करे, तो उस युग से उसको क्या लाभ प्राप्त हुआ? यह सुनकर भक्त ने गुरुदेव के चरणों में नमस्कार किया और कहा- "हे गुरुदेव ! सत्य है ।"
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*दादू अगम वस्तु पानैं पड़ी, राखि मंझि छिपाइ ।*
*छिन छिन सोई संभालिए, मत वै बीसर जाइ ॥ ५८ ॥* 
श्री सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासुओ ! जो यह मनुष्य शरीर है, वह उत्तम पुण्य से तुम्हें प्राप्त हुआ है । यह रक्षा करने वाले राम का प्राप्ति स्थान है । अत: इस शरीर को काम, क्रोध, लोभ, मोह इन सबसे हटा कर उस राम नाम में रखो और मनुष्य जीवन का जो कर्तव्य है, क्षण प्रतिक्षण उसका चिन्तन करो, क्योकिं मन्द-बुद्धि पुरुष मानव के कर्तव्य को भूल कर कहीं विषयों में न चला जावे ॥ ५८
(क्रमशः)

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