*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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= स्मरण का अंग - २ =
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*अविनाशी सौं एक ह्वै, निमिष न इत उत जाइ ।*
*बहुत बिलाई क्या करै, जे हरि हरि शब्द सुणाइ ॥ ४४ ॥*
दादूजी कहते हैं - हे जिज्ञासुजनों ! इस प्रकार अविनाशी जो परमेश्वर है - इस लोक के राज्य, पद आदि और "उत" कहिए, परलोक के स्वर्ग, बैकुण्ठ आदि में, पलक मात्र भी चित्त नहीं जाता है, उससे तुम एक स्वरूप हो जाओगे । फिर हरि के अनन्य भक्त का वह "बिलाई रूप" मायावी प्रपंच, क्या बिगाड़ कर सकते हैं ॥ ४४ ॥
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*दादू जहाँ रहूँ तहँ राम सौं, भावै कन्दलि जाइ ।*
*भावै गिरि परवत रहूँ, भावै गृह बसाइ ॥ ४५ ॥*
*भावै गिरि परवत रहूँ, भावै गृह बसाइ ॥ ४५ ॥*
ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज अपने को उपलक्ष्य करके प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं कि हे नाथ ! इस शरीर का भ्रमण आदि का जैसा प्रारब्ध हो, वैसा ही रहे, चाहे यह छोटे-बड़े पहाड़ पर रहे, चाहे किसी गुफा या वन में रहे और चाहे घर में ही रहे, चाहे जल में साधना करूँ, चाहे शीर्षासन, सूर्य नमस्कार आदि आसन करूं, परन्तु इस जीवात्मा का ध्यान सर्वत्र आपके ही नाम-स्मरण में लगा रहे ॥ ४५ ॥
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*भावै जाइ जलहरि रहूँ, भावै शीश नवाइ ।*
*जहाँ तहाँ हरि नाम सौं, हिरदै हेत लगाइ ॥ ४६ ॥*
चाहे जल में साधना करूँ, चाहे शीर्षासन, सूर्य नमस्कार आदि आसन करूँ, परन्तु इस जीवात्मा का ध्यान सर्वत्र आपके ही नाम-स्मरण में लगा रहे । इसलिए हे प्रभु ! ऐसी कृपा करो कि इस जीव की चित्तवृत्ति "अहनिश" कहिए, रात-दिन आप में ही लगी रहे । हे जिज्ञासुओं ! आप लोग ऐसी ही प्रार्थना प्रभु से करते रहो ॥ ४६ ॥
(क्रमशः)
(क्रमशः)
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