*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरहीजनों की अनन्यता*
*मन चित चातक ज्यों रटै, पीव पीव लागी प्यास ।*
*दादू दर्शन कारणै, पुरवहु मेरी आस ॥४॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहीजनों का चित्त चेतनायुक्त अर्थात् ईश्वर-परायण मन, आतुरता सहित प्रभु दर्शनों के लिए चातक पक्षी की तरह "हे पीव ! हे पीव ! आपके दर्शनों की मेरी इस उत्कण्ठा को पूर्ण करो ।" इस प्रकार पुकार करते हैं ॥४॥
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दादू विरहनी दुख कासनि कहै, कासनि देइ संदेश ।
पंथ निहारत पीव का, विरहनी पलटे केश ॥५॥
सतगुरुदेव कहते हैं कि हम विरहीजन अपने संदेश(समाचार) किस से कहें और किस के द्वारा अपने समाचार प्रीतम के पास पहुँचावें । पीव के आगमन की प्रतीक्षा करते-करते चिंतातुर विरहीजनों के सिर के केश भी बदल(सफेद हो) गए हैं और मन निष्पाप हो गया है । अभी तक प्रभु के दर्शन नहीं हुए हैं । इसी से विरहीजनों का मन ही अति व्याकुल है ॥५॥
"सजन" फेर न बाहुड़े, प्रीतम रहे विदेश ।
पंथ निहारत हे सखी ! विरहनी पलटे केश ॥
बालम बिछुरत हे सखी, कालम लागी येह ।
जालम जम के बस भई, सालम रही न देह ॥
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*दादू विरहनी दुख कासनि कहै, जानत है जगदीश ।*
*दादू निशदिन बिरही है, विरहा करवत शीश ॥६॥*
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! हम विरहीजन अपना दु:ख किससे कहें, क्योंकि कोई इस दु:ख को दूर कर सके तो उससे अपना दु:ख कहें भी, किन्तु संसारीजनों में तो ऐसा कोई समर्थ है नहीं । और हे जगदीश ! आप समर्थ हो, सर्वज्ञ हो, आप स्वयं विरहीजनों के दु:ख को जानते हो, फिर भी आप प्रकट होकर दर्शन नहीं देते हो । इसलिए आपके प्रेम में हम परम आतुर हो रहे हैं ॥६॥
कौन सुने, कासौं कहूँ, जो जिय उपजत बात ।
मेरे उर अंतर सखी, करवत आवत जात ॥
दोऊ कर करतव चले, विरह भयो सूँतबार ।
सबै हियो यह कंठलो, बिहरत बारंबार ॥
*दादू निशदिन बिरही है, विरहा करवत शीश ॥६॥*
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! हम विरहीजन अपना दु:ख किससे कहें, क्योंकि कोई इस दु:ख को दूर कर सके तो उससे अपना दु:ख कहें भी, किन्तु संसारीजनों में तो ऐसा कोई समर्थ है नहीं । और हे जगदीश ! आप समर्थ हो, सर्वज्ञ हो, आप स्वयं विरहीजनों के दु:ख को जानते हो, फिर भी आप प्रकट होकर दर्शन नहीं देते हो । इसलिए आपके प्रेम में हम परम आतुर हो रहे हैं ॥६॥
कौन सुने, कासौं कहूँ, जो जिय उपजत बात ।
मेरे उर अंतर सखी, करवत आवत जात ॥
दोऊ कर करतव चले, विरह भयो सूँतबार ।
सबै हियो यह कंठलो, बिहरत बारंबार ॥
(क्रमशः)
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