*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= अथ विरह का अंग - ३ =*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवत: ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगत: ॥१॥
ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि हरि, गुरु, संतों को नमो, नमस्कार, वंदना स्वीकार होवे कि जिनकी कृपा से जिज्ञासुजन स्मरणरूप साधन द्वारा अन्त:करण की विषय-वासनाओं से "पारं" कहिए, निर्मल होकर परमेश्वर के विरह में व्याकुलता सहित "गत:" कहिए, अखंड लय द्वारा लीन हो रहे हैं ॥१॥
"जैमल" विरह न ऊपजै, पीव सौं प्रीति न होय ।
सो घट मुर्दा मध्य में, जे सब तीरथ धोय ॥"
जा घट विरहा उपजै, ता सर पूरे भाग ।
विरह विहूणां प्राणिया, जैसा कारा काग ॥
शास्त्रों में विरह की दस अवस्थाएँ बताई गई हैं - शरीर का गर्म रहना, कृशता, अनिद्रा, अधैर्य, जड़ता, निरालम्बता, उन्मादता, मूच्र्छा, विराग और मरण ।
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*अब विरहीजनों की अवस्था का वर्णन कर रहे हैं*
*रतिवंती आरति करै, राम सनेही आव ।*
*दादू औसर अब मिलै, यहु विरहनी का भाव ॥२॥*
हे जिज्ञासुओं ! विरहीजनों की "रतिवंती" कहिए बुद्धि, परमेश्वर से "आरती" कहिए आतुरता(व्याकुलता) सहित विलाप करती है कि मेरे राम ! हे मेरे स्नेही ! हे मेरे हितकारी ! "आव" कहिए प्रकट होकर, दर्शन देओ । ब्रह्मर्षि दादू दयाल कहते हैं कि विरहिनी का यह प्रयोजन है कि इस मनुष्य शरीर रूपी अवसर मिलने पर प्रियतम परमेश्वर के विरह के दु:ख के समय, परम स्नेही प्रभु का साक्षात्कार करके विरहीजन स्वस्वरूप आनन्द का अनुभव करै ॥२॥
आव पियारे साजना, आवै न येही बार ।
नांतर नैन गमाइ हैं, पंथ निहार निहार ॥
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*विरहिनी की विरह दशा और उसका विलाप*
*पीव पुकारै विरहनी, निशदिन रहे उदास ।*
*राम राम दादू कहै, ताला-बेली प्यास ॥३॥*
सतगुरुदेव कहते हैं कि विरहिनी इस प्रकार विलाप करती है कि हे मेरे पीव ! पालन करने वाले परमेश्वर ! मुझे आपका दर्शन दो । कदाचित् विरहनी को प्रभु के दर्शन नहीं होवें, तो विरहीजन रात और दिन संसार विषयों से उदासीन होकर तड़पते हैं और अति व्याकुलता सहित "हे राम ! हे राम !" इस प्रकार आतुर स्वर में प्रभु को पुकारते हैं । 'ताला बेली प्यास' इन तीनों पदों से विरहीजनों की मन, वाणी और शरीर द्वारा प्रभु में अनन्यता दर्शाई है ॥ ३ ॥
पीव पुकारै विरहनी, निसदिन करै पुकार ।
मिलि हो प्यारे साजनां, जन हरि दास विचार ॥
प्राण पिंड रग रोम सब, हरि दिशि रहे निहारि ।
ज्यों बसुधा बनराय सौं, विरही चाहे वारि ॥
(वसुधा = पृथ्वी । वारि = जल)
(क्रमशः)
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