रविवार, 12 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥ 

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= विरह का अंग - ३ =* 
.
*शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी ?* 
*तूँही, तूँही निशदिन करूँ, विरहा की जारी ॥७॥ 
हे प्रभु ! हम विरहीजन आपके वियोग-जन्य दु:ख से अति निर्बल होकर प्रतिक्षण पुकार करते हैं कि हे स्वामिन् "तूं ही है", "तूं ही है" । हमारे विरह के दु:ख को दूर करने वाला एक तूं ही है । पुन: विरहीजन विनय करते हैं कि हे नाथ ! आपके दीनोद्धारक, भक्त वच्छल, अशरण-शरण, ये विशेषण तो आपके अति उत्तम हैं, किन्तु हमारी बारम्बार विनय सुनकर के भी आप दर्शन नहीं देते हैं ? आपके यह चिरिया चरित्र, कारी नाम कठोरता क्यों है ? अथवा चिरिया कहिए, हे कोयल ! तेरा शब्द तो उज्जवल है, किन्तु तेरा शरीर कारी = काला क्यों है ॥७॥ 
कोयल तूं सुभ लक्षणी, उज्जल तेरे बैन । 
किसी विधि तूं कारी भई, किस विधि राते नैन ॥
(राते = लाल)
जब विधाता मोहे रची, कबहुँ न पायो चैन । 
कूक-कूक कारी भई, रो-रो राते नैन ॥ 
चिरिया से मतलब चोले का है । हे विरहीजनों ! तुम्हारी वाणी तो अत्यन्त मधुर है, किन्तु शरीर अति कृश(कमजोर), काला क्यों है? विरही कहते हैं कि प्रभु ! प्रतिक्षण तेरी टेर लगाते हुए हम विरहीजन, विरह-अग्नि में जलकर कोयला हो गये हैं अर्थात् देहाध्यास से मुक्त हुए हैं ।
.
*विरह विलाप*
*विरहनी रौवे रात दिन, झूरै मन ही मांहिं ।*
*दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाहिं ॥८॥* 
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! विरहीजन रात-दिन रोते हैं और मन ही मन क्षीण होते जा रहे हैं । क्योंकि मनुष्य का जीवनरूप या यौवन रूपी यह अवसर खत्म होता जा रहा है, किन्तु अभी तक प्रीतम प्यारे का संयोग प्राप्त नहीं हुआ है ॥८॥ 
चित्त चहूँटया मिंत सौं, कछु न सुहावै ताहि ।
नैनहुँ नींद न जीव जक, मिंत मिलन की चाहि ॥ 
विरह पावक उर बसै, नख सिख जारै देह ।
रज्जब ऊपरि रहम करि, बरसहु मोहन मेह ॥ 
पावक = अग्नि । मेह = दर्शनरूपी वर्षा ।
.
*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं, निशदिन तलफत जाइ ।* 
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥९॥*
जैसे कुंज पक्षी कतार बाँध कर आकाश में उड़ते हुए अपने बच्चों के पालन करने के लिए अत्यन्त करूणा से विलाप करते हैं, सतगुरुदेव इसी भाव को स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार कुँज पक्षी, अपने बच्चों के निमित्त आठों पहर कुरलाते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर के दर्शनों के लिए विरहीजनों के भी रात-दिन तड़फते हुए बीतते हैं ॥९॥ 
शोके क्षोभे च हृदयं प्रालपैखधार्यते । 
पूरोत्पीडतड़ागस्य परीवाह: प्रतिक्रिया ॥ 
(शोक और दु:ख में रोने से हृदय हल्का हो जाता है, जैसे पूरे भरे हुए तालाब में से पानी ऊपर कर निकल जाता है ।)
प्रेम समुद्र उलटिया, ताका वार न पार । 
विरह वियोगी डूबते, हाय न होत उबार ॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें