सोमवार, 13 अगस्त 2012

= विरह का अँग ३ =(१०-१२)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*पासैं बैठा सब सुणै, हमकों जवाब न देइ ।* 
*दादू तेरे सिर चढै, जीव हमारा लेइ ॥१०॥* 
सतगुरु महाराज कहते हैं कि हे प्रभु ! हमारे प्रीतम प्यारे परमेश्वर पास में ही बैठे हैं और हमारी दु:ख भरी आवाज भी सुनते हैं, परन्तु हमको कुछ भी उत्तर नहीं देते । इसलिए हम विरहीजनों को भारी दु:ख है । विरहीजन कहते हैं कि हे स्वामिन् ! यदि आप हमें दर्शन नहीं देवेंगे तो हमारे प्राण-पिण्ड के वियोग का जो दोष(पाप) है, वह आपके सिर पर चढ़ेगा ॥१०॥ 
किं सुप्तोSसि किमाकुलड़ोSसि जगत: सृष्टस्य रक्षाविधौ, 
किं वा निष्करूणोSसि नूनमथवा क्षीव: स्वतन्त्रतोSसि किम् ।
किं वा मादृशनि:शरण्यकृपणों भाग्यैर्जड़ोSवागसि ? 
स्वामिन् ! यन्न श्रुणोति में विलपितं यन्नोत्तरं नेच्छसि ॥
(हे स्वामिन् ! क्या तुम सो रहे हो या जगत् की रचना में व्याकुल हो रहे हो ? या मेरे प्रति निर्दयी हो गये हो, पागल या स्वतन्त्र हो गये हो ? या मेरी तरह तुम भी दीन-हीनों पर दया नहीं दिखाना चाहते अथवा मेरे दुर्भाग्य से तुम गूंगे-बहरे बन गये जो कि तुम मुझे कुछ भी उत्तर नहीं देना चाहते हो?)
सज्जन तुमसे क्या कहूँ, तूं ही कपट के भेष । 
बसने को मेरा हृदय, मिलने को परदेस ॥ 
"ईश्वर: सर्वभूतानां हृददेशेSर्जुन ! तिष्ठति ।"- गीता 
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*सबको सुखिया देखिये, दुखिया नाहीं कोइ ।* 
*दुखिया दादू दास है, अैन परस नहीं होइ ॥११॥*
हे स्वामिन् ! आपके विरहीजन भक्तों के अतिरिक्त समस्त संसारीजन, पुत्र-धन आदि संसारी वैभवों से अपने को सुखी जानते हैं । परन्तु हे प्रभु ! आपके वियोग का दु:ख वे कोई भी नहीं मानते हैं, केवल सच्चे भक्तजन ही आपके प्रत्यक्ष दर्शनों के लिए अति आतुर हैं । हे भक्त-वत्सल ! आप अपने भक्तों का आपकी अप्राप्ति रूप जो दु:ख है, उसको दर्शन देकर दूर करिए ॥११॥ 
नरसिंह कही प्रह्लाद से, वर देऊँ मैं तोहि । 
जगत सुखी करि ल्याउ अब, दुखी मिल्यो नहीं मोहि ॥ 
दृष्टांत - भक्त प्रह्लाद की भक्ति को देखकर भगवान् नरसिंह प्रकट हुए और बोले, "वर मांग" । प्रह्लाद बोले :- हे नाथ ! सारे संसार को सुखी बना दो और उन सबका दु:ख मुझे दे दो । भगवान् बोले :- आपके नगर में जो दु:खी हैं, उन सबको ले आओ ! उनको सुखी बनाकर उनका दु:ख आपको दे देंगे । इसी प्रकार सारे संसार के दु:ख दूर करेंगे । प्रह्लाद नगर में गए और एक बूढा और बुढिया को बोले :- आओ, मैं आपको भगवान् के पास ले चलूं, ताकि तुम सुखी हो जाओगे । वे प्रह्लाद को डांट कर बोले :- चल चल, तूं ही जा भगवान् के पास सुखी होने । इसी प्रकार प्रह्लाद ने नगर में कई दु:खियों को कहा, परन्तु एक भी नहीं आया । भगवान् को आकर प्रह्लाद बोला :- महाराज ! कोई भी नहीं आता है । भगवान बोले :- कोई इस संसार में दुखी नहीं है । केवल मेरे दास ही दुखी हैं, जिनको मेरा दर्शन नहीं होता । कबीर ने कहा है :-
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै । 
दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै ॥ 
बिरही जन को कौन सुख, कहाँ धौ इहि कलि काल । 
नैना गंग तरंग लै, बिन दरशन बेहाल ॥
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*विरहीजनों के दु:ख का कारण*
*साहिब मुख बोलै नहीं, सेवक फिरै उदास ।* 
*यहु बेदन जिय में रहै, दुखिया दादू दास ॥१२॥* 
दादूजी कहते हैं हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर अपने भक्तों से प्रगट होकर जब तक नहीं बोलते हैं, तब तक परमेश्वर के भक्त अति दुखी रहते हैं और उदास हुए घूमते हैं । क्योंकि परमेश्वर के भक्तों के हृदय में यह भारी दुख बना ही रहता है कि हमारे स्वामी परमेश्वर हमसे प्रेम नहीं करते हैं । इस प्रकार परमेश्वर के भक्त विरहरूपी दर्द से सदा ही व्याकुल रहते हैं ॥१२॥ 
उर ग्रीष्म पावस नयन, अरु जिय में हिम काल । 
पीव बिन को तीन ऋतु, कबहुँ न मिटै जमाल ॥ 
विरहीजनों के हृदय में ग्रीष्म कहिए गर्म ऋतु, नेत्रों में वर्षा ऋतु और अन्त:करण में सर्द ऋतु, शरीर में तीनों ऋतुएँ व्याप्त रहती हैं ।
(क्रमशः)

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